प्रेम सुधा सागर अध्याय 33 श्लोक 40 का विस्तृत संदर्भ/7

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय

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श्रीगोपीजन साधना के इसी उच्च उतर में परम आदर्श थीं। इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म - सबको छोड़कर, सबका उल्लंघन कर, एकमात्र परमधर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रों का त्याग, यह सर्वधर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप स्वधर्म है।
इस ‘सर्वधर्मत्याग’ रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों-जैसे उच्च स्तर के साधकों में ही सम्भव है। क्योंकि सब धर्मों का यह त्याग वही कर सकते हैं, जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य देव दुर्लभ भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्य का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तैल दीपक की भाँति स्वतः ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कार मूलक नहीं, वरं तृप्ति मूलक है। भगवत्प्रेम की ऊँची स्थिति का यही स्वरूप है। देवर्षि नारदजी का एक सूत्र है -
‘जो वेदों का - वेद मूलक समस्त धर्ममर्यादाओं का भी भलीभाँति त्याग कर देता है, वह अखण्ड, असीम भगवत्प्रेम को प्राप्त करता है।’
जिसको भगवान अपनी वंशी ध्वनि सुनाकर - नाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है।
रोकने वालों ने रोका भी, परन्तु हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की प्रखर धारा को क्या कोई रोक सकता है? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जिनके चित्त में कुछ प्राक्तन संस्कार अविशिष्ट थे, वे अपने अनाधिकार के कारण सशरीर जाने में समर्थ न हुईं। उनका शरीर घर में पड़ा रह गया, भगवान के वियोग-दुःख से उनके सारे कलुष धुल गये, ध्यान में प्राप्त भगवान के प्रेमालिंगन से उनके समस्त सौभाग्य का परमफल प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान के पास पहुँच गयीं। भगवान में मिल गयीं। यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्य के कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभ का भोग होता है। शुभाशुभ कर्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है। यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्रीभगवान की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिये यह दिखाया गया है कि अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से, उनके विरहानल से उनको इतना महान् सन्ताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण अशुभ का भोग हो गया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गये। और प्रियतम भगवान के ध्यान से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उससे उनके सारे पुण्यों का फल मिल गया। इस प्रकार पाप-पुण्यों का पूर्ण रूप से अभाव होने से उनकी मुक्ति हो गयी। चाहे किसी भी भाव से हो - काम से, क्रोध से, लोभ से, जो भगवान के मंगलमय श्रीविग्रह का चिन्तन करता है, उसके भाव की अपेक्षा न करके वस्तु शक्ति से ही उसका कल्याण हो जाता है। यह भगवान के श्रीविग्रह की विशेषता है। भाव के द्वारा तो एक प्रस्तर मूर्ति भी परम कल्याण का दान कर सकती है, बिना भाव के ही कल्याण दान भगवद्विजग्रह का सहज दान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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