प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 84

प्रेम सत्संग सुधा माला

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तुम्हें सुनाती हूँ- ‘मथुरा जाने के कुछ ही दिनों पहले मैं उनसे रूठ गयी थी। श्यामसुन्दर के सखा! मैं देखना चाहती थी, उस दिन ह्रदय खोलकर देखना चाहती थी, मेरे प्रियतम मुझे कितना प्यार करते हैं। आँखों के सामने श्यामसुन्दर थे और मैं मुँह फेरकर बैठ गयी। वे आये, बड़े प्रेम से मेरे हाथों को पकड़कर बोले- ‘प्रियतमे! अपराध क्षमा करना, मैं देर से आया; तुम मेरी प्रतीक्षा में व्याकुल थी; पर क्या करूँ? तुम्हारा ध्यान करते-करते मैं भूल गया था कि मैं तुमसे दूर हूँ; मैं तुम्हें पास ही अनुभव कर रहा था, सब कुछ भूलकर तुम्हें ही देख रहा था। विश्वास करो, मेरी प्राणेश्वरी! मेरे ह्रदय में तुम्हारे सिवा और किसी के लिये तिलभर भी जगह नहीं; तुम मेरा जीवन हो, तुम मेरे प्राण हो, प्रिय...’ उद्धव! अब बोला जाता नहीं, कण्ठ भर आया; अब आगे तुम्हें उस दिन की बात नहीं सुना सकूँगी। मेरे प्यारे श्यामसुन्दर की उस दिन की झाँकी की, उस दिन की लीला तुम्हें अब आगे नहीं सुना सकूँगी, चाहने पर भी तुम्हें नहीं सुना सकूँगी। नाराज मत होना, सुनने पर भी तुम समझ नहीं सकोगे। उद्धव! उद्धव! बस, बस, इतना ही कहती हूँ कि तुम ठगे गये- मेरे प्रियतम के ह्रदय की बात, ह्रदय का रहस्य तुम नहीं जान सके। तुम्हारे सर्वेश्वर के ह्रदय में क्या-क्या है, वे इसे नहीं जानते। उद्धव! उनका ह्रदय ओह! क्या बताऊँ; वह तो मेरे पास है। यह देखो, देख सको तो देखो; तुम्हारा सर्वेश्वर यहाँ मेरे ह्रदय में क्या कर रहा है; पर तुम अभी नहीं देख सकोगे। जाने दो, उद्धव! हम गँवारी ग्वालिनों को मरने दो, श्यामसुन्दर का नाम ले-लेकर मर जाने दो। उद्धव! उद्धव! तुम भूलते हो- लोक-लाज को, कुल कान को, यश-अपयश को तो आज से बहुत पहले मैं जला चुकी हूँ; सबको भस्म कर चुकी हूँ। वे सब-के-सब न जाने कभी के जलकर खाक हो गये और बह गये उस अजस्त्र धारा में, श्यामसुन्दर के प्रेम की प्रबल रसधारा में। उनकी गन्ध भी नहीं बच रही है। उद्धव! यदि तुम देख सकते तो देख पाते कि मेरे ह्रदय में क्या भरा है, प्यारे सखा! श्यामसुन्दर के सखा के नाते तुम मेरे भी सखा हो; पर सखा! क्या करूँ, तुम्हारी आँखें वहाँ नहीं पहुँच रही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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