प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 69

प्रेम सत्संग सुधा माला

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इसी दशा का वर्णन करते हुए महात्माओं ने लीला देख-देखकर जो पद लिखे हैं, वे विरह के पद कहे जाते हैं। महात्माओं के जो पद मिलते हैं, उनमें भी कुछ ऐसे हैं, जो कल्पना से लिखे गये हैं और कुछ लीला देखकर- अनुभव करके लिखे गये हैं। यह निर्णय पहुँचे हुए संत लोग ही कर सकते हैं कि कौन अनुभव का है, कौन कल्पना का। पर हमारे-जैसे तुच्छ प्राणियों के लिये, पामर प्राणियों के लिये तो सभी पद- चाहे कल्पना के हों, चाहे अनुभव के हों- पवित्र करने वाले ही हैं। अतः श्रद्धा से युक्त होकर व्रजसुन्दरियों की कैसी दशा होती है, प्रेम की कैसी विलक्षण अतुलनीय अवस्था होती है- इसे सुनकर कृतार्थ होने की आशा से, उन व्रजसुन्दरियों की चरणधूलि वन्दना करते हुए, उनकी कृपा के एक कण की भीख माँगते हुए हम लोग उनकी विरह-चर्चा करें, सुनें। मन लगाने के उद्देश्य से नहीं, मन को पवित्रतम करने के उद्देश्य से विरह की चर्चा सुनें, करें।

उन विरह के पदों में भी कई तो श्रीराधाजी के विरह के पद हैं और कई उनकी सखियों के विरह के। पर यह भी निर्णय करना कठिन है कि कौन किसके हैं। अस्तु, किसी के भी हों, हमारे-जैसों को चरणों में स्थान देकर, हमारी मलिन आत्माओं को अपनी कृपा की बूँद देकर कृतार्थ करें- यही राधारानी से, व्रज-सुन्दरियों से एवं श्रीकृष्ण से प्रार्थना है।

59-प्रेम की सब अवस्थाओं का, ऊँचे-से-ऊँचे भावों का विकास श्रीराधारानी में होता है।रस शास्त्र के पण्डितों ने तथा भावुक, अनुभवी वैष्णवों ने इन बातों की विस्तार से आलोचना की है। उसी प्रेम की एक अवस्था का नाम है- प्रेम-वैचित्य। इसका प्रकाश प्रायः राधारानी में ही होता है तथा उनकी अष्टसखियों में भी होना सम्भव है। इसमें होता है यह है कि श्रीकृष्ण पास में रहते हैं, राधारानी स्वयं श्रीकृष्ण की गोद में सिर रखकर लेटी रहती हैं, पर उन्हें यह भान होने लग जाता है कि श्रीकृष्ण हमें छोड़कर कहीं चले गये और रोने लगती हैं- इतनी व्याकुलता हो जाती है कि फिर सर्वथा मरण की दशा उपस्थित हो जाती है। श्रीकृष्ण की गोद में रहकर ही ऐसी दशा होती है। श्रीकृष्ण यह देखकर आनन्द-निमग्न होते हैं तथा राधा प्रेम की अतुलनीय दशा का आस्वाद लेते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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