प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 68

प्रेम सत्संग सुधा माला

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58- मोहन मुखारबिंद पर मनमथ कोटिक वारौं री माई ।
जहँ जहँ अंगन दृष्टि परति तहँ तहँ रहत लुभाई ॥
अलक तिलक कुंडल कपोल छबि
इन रसना मो पै बरनि न जाई ॥
गोबिंद प्रभु की बानिक ऊपर
बलि बलि रसिक चूड़ामनि राई ॥

जगत् का समस्त सौन्दर्य इकट्ठा कर लेने पर भी श्यामसुन्दर के श्रीविग्रह के सौन्दर्य सागर की एक बूँद के भी बराबर नहीं होता। त्रिभुवन में सबसे सुन्दर कामदेव माने जाते हैं; पर शास्त्र मं ऐसा वर्णन मिलता है कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के रूप के करोड़वें अंश के करोड़वें अंश से कामदेव में सुन्दरता आती है। श्रीकृष्ण के एक-एक अंग पर करोड़ों कामदेवों की छबि फीकी पड़ जाती है। यह केवल भावुकता की बात नहीं है। सचमुच ही जिन संतों को उनकी हलकी-सी झाँकी मिल जाती है, वे बिलकुल पागल-से हो जाते हैं। इसी त्रिभुवनमोहन नाम को सुनकर श्रीकृष्ण के प्रति श्रीगोपीजनों का ह्रदय बिक जाता है। साधना के बाद जब गोपी भाव के साधकों का नित्य सच्चिदानन्दमय वृन्दावन धाम में जन्म होता है और गोपी देह में जब किशोर-अवस्था प्रादुर्भाव होता है, तब श्रीकृष्ण का रूप देखने का, श्रीकृष्ण-नाम सुनने का एवं उनकी वंशीध्वनि सुनने का सुअवसर उन्हें प्राप्त होता है। बस, एक बार इन तीनों में से किसी को देखने या सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कि एक अनिर्वचनीय दशा प्रारम्भ होती है, जिसकी जगत् में कहीं कोई तुलना ही नहीं है। सूरदास, नन्ददास आदि महात्माओं ने इसी दशा का वर्णन करते हुए जो पद लिखे हैं, उन्हें ‘हिलग’ के पद कहते हैं। यथार्थ दशा का वर्णन तो वाणी में आ ही नहीं सकता। जो आता है, वह भी उसी को अनुभव हो सकता है कि जो निरन्तर भजन-स्मरण करते-करते अपनी सारी विषयासक्ति खो चुका है। अस्तु, जब गोपियों की व्याकुलता- श्रीकृष्ण से मिलने की व्याकुलता चरम सीमा को पहुँच जाती है, तब पहले-पहल उनका रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ मिलन होता है और इसके बाद उन्हें सेवा का अधिकार मिलता है। फिर एक लीला होती है- विरह की लीला, अर्थात् श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियों को छोड़कर मथुरा चले जाते हैं और वहाँ से द्वारका चले जाते हैं। इसी वियोग की दशा में प्रेम का यथार्थ स्वरुप खिलता है। प्रेम क्या वस्तु है, यह व्रजसुन्दरियों की दशा से कुछ-कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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