प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 54

प्रेम सत्संग सुधा माला

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कोई कहे कि संत अपने-आप को प्रकट करके जीवों का उद्धार क्यों नहीं करते तो इसका उत्तर, यदि इसमें लाभ होता तो आप ठीक-समझें; यह है कि वे प्रकट होकर नाचते। जिस समय प्रकट होने से लाभ होता है, उस समय प्रकट भी होते हैं- हुए हैं। पूर्वकाल में महाप्रभु चैतन्यदेव प्रकट हुए थे और खुलेआम प्रेम का वितरण उन्होंने किया था। उस दिन पेट में प्रेम की भूख थी। आज तो जगत् के प्राणी चाहते हैं- हमको धन मिले, मान मिले। यह देना उन्हें अभीष्ट है नहीं। अधिकांश जगत् का वातावरण आज इसी कामना से कलुषित हो रहा है। फिर इससे भी ऊपर की एक बात यह है कि भगवान् कब कौन-सा ढंग स्वीकार करते हैं- इसका रहस्य यदि हम समझ जायँ तो फिर भगवान् भी हमारी तरह मामूली ही सिद्ध हों, उनकी भगवत्ता ही क्या रह जाय। अतः शास्त्र एवं संत स्वयं कहते हैं कि चाहे उनकी कोई चेष्टा ऐसी हो कि जिससे जगत् को कम लाभ होता हुआ दीखे; पर निश्चय-निश्चय मान लीजिये कि इसी चेष्टा से इस समय अधिक लाभ होगा। यदि न ओता तो वे वैसी चेष्टा करते ही नहीं; क्योंकि उनमें भ्रम-प्रमाद की गुंजाइश ही नहीं है। इस पर विश्वास करा देना बड़ा कठिन है; पर बात बिलकुल सत्य है- शास्त्र की है, मेरी नहीं। उन ऋषियों की बात है, जिनकी बातें त्रिकाल-सत्य हैं।

बिलकुल उनकी कृपा से ही कोई उन्हें जान सकता है। मुझ-जैसे मलिन प्राणी तो संत एवं भगवान् के तत्व की वास्तविक कल्पना भी नहीं कर सकते। बंगाल की बात है- हाल की ही। एक माई थी- विधवा हो गयी। पर भगवान् में उसका वात्सल्य भाव हो गया। फिर गोपाल को पुत्र मानकर उसने तीस वर्ष तक उपासना की। प्रतिदिन गोपाल को भावना से भोजन कराया करती थी। अब गोपाल को दया आ गयी। एक दिन आये और सचमुच खाने लग गये। पर आधा खाकर ही भाग गये। वह तो प्रेम से पगली हो गयी। ‘गोपाल’, ‘गोपाल’ चिल्लाती हुई मारी-मारी फिरती। उन्हीं दिनों रामकृष्ण परमहंस नाम के कलकत्ते में एक बहुत बड़े महात्मा हुए थे। कुछ लोग उन्हीं की पास जा रहे थे। लोगों ने उस माई से कहा-‘चल, बुढ़िया! गोपाल वहाँ मिलेंगे।’ वह तो पगली थी ही, थोड़ा चावल और नमक बाँध लिया कि गोपाल मिलेगा तो खिलाऊँगी। वहाँ पहुँची। लोगों की भीड़ थी। परमहंस उपदेश कर रहे थे। तरह-तरह के उपहार, मिठाई, फल आदि लोग लाये थे। सब सामने रखा हुआ था। बुढ़िया गयी। परमहंस को देखते ही बिल्कुल शान्त हो गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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