प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 53

प्रेम सत्संग सुधा माला

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भगवान् हैं तो प्रत्येक प्राणी में, पर कहाँ पर किसी कारण से (प्रेम की रगड़ से) प्रकट हुए और प्रकट होते ही उन्होंने अपने आधार को अर्थात् जिसके लिये जिसमें प्रकट हुए थे उसे बिलकुल पूरा-पूरा अपने समान बना लिया। जलने के बाद जिस तरह काठ बिलकुल काठ न रहकर अग्नि हो जाता है, ठीक वैसे ही संत देखने में तो मामूली मनुष्य की तरह खाता-पीता, व्यवहार करता है, हँसता-रोता है, संन्यासी न हो तो घर-गृहस्थी भी करता है; परंतु वस्तुतः वह भगवान् की ही एक लीला है। जिससे वे अपने को छिपाये रहते हैं। प्रश्न यह होता है कि फिर उस शरीर को भगवान् रखते क्यों हैं? रखते हैं इसीलिये कि उसके स्पर्श में आकर कुछ और भी प्राणी उस आग में जलकर उसी की तरह बन जायँ, इसीलिये प्रारब्ध की लीला का निर्वाह होता है।

शास्त्र पढ़ने से तो अनेक प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो ही जाती है कि सच्चे भगवत्प्राप्त संत भगवान् से अभिन्न हो जाते हैं। युक्तियों के द्वारा भी मनुष्य इसे समझ सकता है। पर वही समझेगा कि जिसने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बनाया है कि ‘मुझे प्रभु से मिलना है।’ फिर होता क्या है कि संत स्वयं अपनी गरमी- अपना तेज उसे प्रकट करके दिखलाना शुरू कर देते हैं। उनके तेज का असर तो सब पर होता है, पर बीच में अहंकार, संसार की वासना, विषय-सुख की चाह, उनसे लौकिक स्वार्थपूर्ति की वासना- ये सब खड़े होकर उनके तेज को देर से ग्रहण होने देते हैं। जिस दिन जीवन का उद्देश्य एकमात्र भगवान् हो जाते हैं, उस दिन ये सब व्यवधान झड़ जाते हैं, साधक इनको फेंककर अकिंचन बन जाता है। फिर जहाँ पर संत दीखते हैं, उस स्थान पर श्रीकृष्ण दीखें- इसमें तो कहना ही क्या है, उसकी दृष्टि में सर्वत्र एक श्रीकृष्ण ही रह जाते हैं और वह दिव्य पावन आनन्द के समुद्र में डूब जाता है। जब तक यह हो, तब तक शास्त्र आज्ञा देते हैं कि ‘चाहे किसी भाव से हो, सम्बन्ध जोड़े रहो।’ भगवान् की करुणा जैसे अहैतुक रूप से भगवान् में रहती है, संत रूप भगवान् की मूर्ति में भी वह करुणा वैसे ही रहती है और वाह करुणा किसी दिन एक क्षण में तुम्हारे व्यवधान को दूर कर देगी। अवश्य ही अलग हटोगे तो भी निस्तार तो होगा ही; क्योंकि एक बार का सम्बन्ध ही निस्तार के लिये पर्याप्त है। पर कुछ देर लगेगी; क्योंकि आखिर नियम से सब होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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