प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 38

प्रेम सत्संग सुधा माला

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श्रीकृष्ण! तुम ग्वालों के आँगन की कीचड़ में लोटते हो, परविप्रवरों के यज्ञों में जाते हुए लजाते हो; गौ-बछड़ों के हुंकार का उत्तर देते हो, पर सत्पुरुषों की सैकड़ों स्तुतियाँ सुनकर भी मौन धारण किये रहते हो, गोकुल की पुंश्चलियों की दासता करते हो, पर जितेन्द्रिय पुरुषों के चाहने पर भी उनके स्वामी नहीं बनते। इससे यह पता लग गया कि तुम्हारे चरण-पंकज-युगल केवल प्रेम से ही प्राप्त हो सकते हैं।’ तात्पर्य यह है कि परम- असीम सुन्दर ओकर भी वे परम स्वतन्त्र हैं। उनकी हल की-सी झाँकी भी स्वप्न में वही कर सकता है, जिसे वे कराना चाहें। खेलना उनका स्वभाव है। उनका खेल भी विचित्र है। राजा को रंक, रंक को राजा; पापी को संत, संत को पापी; श्मशान को महल, महल में श्मशान- ऐसी ही विचित्र लीला वे करते हैं। किस क्षण, किसके जीवन में क्या होगा, यह किसको पता? पर भक्त को डरने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो उनकी ओर आशा लगाकर भजन करते रहना चाहिये। एक श्लोक है-

प्रतिज्ञा तव गोविन्द न मे भक्तः प्रणश्यति ।
इति संस्मृत्य संस्मृत्य प्राणान् संधारयाम्यहम्॥

‘गोविन्द! आपकी यह प्रतिज्ञा है कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता। मैं इसी बात को याद कर-करके प्राणों को धारण कर रहा हूँ।’

35- यही श्रीकृष्ण हैं। अणु-अणु में श्रीकृष्ण हैं और जहाँ हैं, अपनी सम्पूर्ण शक्ति, समग्र ऐश्वर्य को लेकर ही वर्तमान हैं। अब यदि हमारा इस बात पर विश्वास हो जाय तो हम दूसरे का मुँह फिर क्यों ताकें। किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं। आज तक जितने भी संत हुए हैं, हैं और होंगे- सब उनके अंदर हैं, सब उन श्रीकृष्ण के अंदर ही हैं जो अणु-अणु में स्थित हैं। यहाँ तक कि हम जिस मन से सोचते हैं, उस हमारे मन में ही वे स्थित हैं। पर हमारा विश्वास नहीं, तब क्या हो? यह घड़ी है, इसी घड़ी के अणु-अणु में श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्णही घड़ी बने हुए हैं। यदि विश्वास हो, ठीक-ठीक संशयहीन विश्वास हो तो यहीं इस घड़ी में ही वे प्रकट हो जायँ और आपसे बातें करने लग जायँ। समस्त वृन्दावन की लीला आप यहीं इस घड़ी के स्थान पर ही देख सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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