प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 37

प्रेम सत्संग सुधा माला

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33-व्रजजीवन कुछ इतना पवित्रतम जीवन है कि उसका कण ही यदि किसी को कल्पना में आ जाय तो फिर सांसारिकभोगों की तो बात ही क्या, ऊँची-से-ऊँची मर्यादा की पारमार्थिक स्थितियों से भी वह सर्वथा उपरत हो जाता है। परंतु यह करने से नहीं होता, यह तो भजन के फलस्वरूप- भगवत्कृपा के प्रभाव से किसी भाग्यवान् साधक में प्रकट होता है। निरन्तर गुण-लीला का श्रवण करते-करते, नाम लेते-लेते उस कृपा का प्रकाश होकर किसी-किसी भाग्यवान् के अनर्थ की जब पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है, तब व्रज प्रेम की साधना वस्तुतः आरम्भ होती है। उसके पहले की साधना तो जबरदस्ती होती है, रूचिपूर्वक नहीं; पर जबर्दस्ती करना भी बड़ा उत्तम है। किसी तरह भी चलने वाले का रास्ता तो कटता ही है।

34-श्रीकृष्ण इतने सुन्दर हैं कि कहीं एक बार वे कृपा करके स्वप्न में भी किसी को एक अपनी हलकी-सी झाँकी दिखा दें तो अनन्त जन्मों की आसक्ति उसी क्षण मिटकर वह रूप के पीछे पागल हो जाय; पर वे किसी के वश में तो हैं नहीं? शास्त्र में एक श्लोक है, जिसमें यह कहा गया है कि श्रीकृष्ण कितने स्वतन्त्र हैं। कालियनाग के फणपर तो नाचते हैं और उनके चरणों के दर्शन के लिये बड़े-बड़े योगी बेचारे अनन्त जन्मों से बाट देखते हैं, पर वे सामने नहीं आते। वे श्रीकृष्ण बड़े ही मौजी हैं। एक अनुभवी भक्त कहते हैं-

गोपालांगणकर्दमेषु विहरन् विप्राध्वरे लज्जसे
ब्रूषे गोकुलहुंकृतैः स्तुतिशतैरर्मौनं विधत्से सताम्।
दास्यं गोकुलपुंश्चलीषु कुरुषे स्वाम्यं न दान्तात्मसु
ज्ञातं कृष्ण तवांडघ्रिपंकजयुगंप्रेमैकलभ्यं मुहुः॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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