प्रिये! तुम्हारा-मेरा यह अति निर्मल परम प्रेम-सम्बन्ध।
सदा शुद्ध आनन्दरूप है, इसमें नहीं काम-दुर्गन्ध॥
कबसे है, कुछ पता नहीं, पर जाता नित अनन्त की ओर।
पूर्ण समर्पण किसका किसमें, कहीं नहीं मिलता कुछ छोर॥
सदा एक, पर सदा बने दो करने लीला-रस-आस्वाद।
कभी न बासी होता रस यह, कभी नहीं होता विस्वाद॥
नित्य नवीन मधुर लीला-रस भी न भिन्न, पर रहता भिन्न।
नव-नव रस-सुख सर्जन करता, कभी न होने देता खिन्न॥
परम सुहृद, धन परम, परम आत्मीय, परम प्रेमास्पदरूप।
हम दोनों दोनों के हैं नित, बने रहेंगे नित्य अनूप॥
कहते नहीं जनाते कुछ भी, कभी परस्पर भी यह बात।
रहते बसे, हृदय में दोनों दोनों के पुनीत अवदात॥
नहीं किसी से लेन-देन कुछ, जग में नहीं किसी से काम।
नहीं कभी कुछ इन्द्रिय-सुखकी कलुष-कामना अपगति-धाम॥