देख तुम्हारा यह पवित्र अप्रतिम अनोखा शील अमान।
नहीं समझ पाती मैं कैसे तुम्हें कराऊँ अपना जान॥
कहाँ नगण्य, नित्य सेवा से विरहित, मैं अति तुच्छ, गँवार।
कहाँ विलक्षण तुम ‘महान्’ का मेरे प्रति यह अतुलित प्यार॥
छिपी इसी से रहती मैं नित, रहती सदा गुप्त-आवास।
निज को, अपनी हर चेष्ट को, सदा छिपाती कर आयास॥
पर यदि कभी तुम्हारे समुख, मैं आ पड़ती प्रेमागार!।
करने लगते कैसे क्या तुम, मानो दबे विपुल ऋण-भार॥
गड़ जाती मैं तब लज्जा से भर जाता उर में संकोच।
देख तुम्हारी अति उदारता, निज की देख परिस्थिति पोच॥
तब तुम हे अनन्त! कैसे क्या, देते फूँक कान (हृदय) में मन्त्र।
उन्मादिनि तुरंत हो जाती, अस्वतन्त्र बन जाती यन्त्र॥