गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 3

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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जिन व्रजवासियों की चरण-धूलि को ब्रह्मा चाहते हैं, उनका कितना बड़ा महत्त्व है! ये व्रजवासीगण मुक्ति के अधिकार को ठुकराकर उससे बहुत आगे बढ़ गये हैं। इस बात को स्वयं ब्रह्मा जी ने कहा है कि ‘ भगवान्! मुक्ति तो कुचों में विष लगाकर मारने को आने वाली पूतना को ही आपने दे दी। इन प्रेमियों को क्या वही देंगे- इनका तो आपको ऋणी बनकर ही रहना होगा‘ और भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुख से यह स्वीकार भी किया है। आप गोपियों से कहते हैं-

न पारेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रंखलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।[1]

‘हे प्रियाओ! तुमने घर की बड़ी कठिन बेड़ियों को तोड़कर मेरी सेवा की है। तुम्हारे इस साधु कार्य का मैं देवताओं के समान आयु में भी बदला नहीं चुका सकता। तुम ही अपनी उदारता से मुझे उऋण करना।‘

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  1. ( श्रीमद्भा0 10 । 32 । 22)

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