गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
वह यह जानता है कि उसकी आत्मा इस अखिल विश्वप्रपंच के परे है, पर वह यह भी जानता है कि ऐश्वर योग से, वह उसके साथ एक है। और वह इन विश्वातीत, विश्वगत और व्यष्टिगत सत्ताओं के हर पहलू को परम सत्य के साथ उसके यथावत् संबंध से देखता जिससे सबके परस्पर-संबंध का कुछ भी पता नहीं चलता अथवा अनुभव करने वाली चेतना को उनके एक ही पहलू का ज्ञान होता है। न सब चीजों को एक साथ गड्ड-मड्ड ही देखता है-इस तरह देखता तो मिथ्या प्रकाश और अव्यस्थित कर्म को आमंत्रण देना है। वह परम पद में सुरक्षित रहता और विश्वप्रकृति के क्रियाक्लेशों से और काल और परिस्थिति की गड़बड़ी से प्रभावित नहीं होता। इन सब पदार्थों की सृष्टि और संहार के बीच में उसकी आत्मा सर्वथा अनुद्विग्न रहती और जो कुछ नित्य और आत्मस्वरूप है उसके साथ अडिग, अकंप और अचल योग में लगी रहती है। इसके द्वारा वह योगेश्वर के दिव्य अध्यवसाय को देखता रहता और प्रशांत विश्वव्यापक भाव तथा सब पदार्थों और प्राणियों के साथ अपने एकत्वभाव से कर्म करता है। और सब पदार्थों के साथ इस प्रकार अतिघनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होने से किसी प्रकार उसके आत्मा और मन भेदोत्पादक निम्न प्रकृति में नहीं फंसते, क्योंकि आत्मानुभूति की उसकी आधारभूमि कोई निकृष्टि प्राकृत रूप और गति नहीं होती बल्कि अंतःस्थ समग्र और परम आत्मभाव होती है। वह भगवान् के स्वभाव और धर्म को प्राप्त होता है, मम साधर्म्यमागता:, विश्वभाव से युक्त होने पर भी विश्वातीत और मन-प्राण-शरीर के विशेष व्यष्टिरूप में रहकर भी विश्वभावयुक्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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