गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
जो निम्न प्रकृति अपने बाह्य कर्मों और दृश्यों में निमगन रहती है उसकी अज्ञानमयता में फंसे रहने के स्थान में वह आंख खुल जायेगी जो सर्वत्र ईश्वर को दखने लगेगी, सर्वत्र आत्मा की एकता और सार्वत्रिकता को अनुभव करने लगेगी। संसार का दुःख-दर्द सर्वानंद के आनंद में अपने-आपको खो देगा; हमारा दौर्बल्य, प्रमाद और पाप सर्वग्राही और सर्व-रूपांतरकारी शक्ति में, सनातन की सतयता और शुचिता में परिवर्तित हो जायेगा। भगवत चैतन्य के साथ अपने अंतःकरण को एक करना, अपनी संपूर्ण भागवत प्रकृति को सर्वत्र स्थित भगवान् के प्रति प्रेम रूप बना देना, अपने सब कर्मों को त्रिभुवननाथ के प्रीत्यर्थ यज्ञ बना देना, और अपनी सारी उपासना और अभीप्सा को उनकी भक्ति तथा आत्मसर्मपण बना देना, संपूर्ण आत्मभाव को संपूर्ण अभेदभाव के साथ भगवान् की ओर लगा देना-यही एक रास्ता है जिससे मनुष्य इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठकर भागवत जीवन को प्राप्त हो सकता है। भागवत प्रेम और भक्ति के संबंध में गीता की यही शिक्षा है, इस प्रेम और भक्ति में ज्ञान, कर्म और हृदय की चाहे सब एक परम एकत्व में एक हो जाते हैं, उनकी सारी विभिन्नताएं घुलमिल जाती हैं, सब तंतु एक पट के ताने-बाने बन जाते हैं, एक महान् एकीकरण होता है, एक विशाल अभेदभाव विस्तृत होता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.33-34
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