गया न कहीं कभी था मैं -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग वसंत - तीन ताल


’गया न कहीं कभी था मैं, जा सकता कहीं न तुमको त्याग’।
बोले प्रिय-’मैं पान कर रहा था छिप तव रसमय अनुराग’॥
कहा श्रीमती ने-’हाँ-हाँ, सच, तुम न गये थे मुझको छोड़।
जा सकते न कभी अपने ही बँधे स्नेह-बन्धन को तोड़॥
लुका-छिपी-लीला में जब तुम हो जाते प्रिय! अन्तर्धान।
ब्याकुलता लख मन-नैनों को स्वयं बता देते संधान॥
जहाँ-जहाँ जाते फिर मेरे नेत्र ढूँढ़ने तुमको श्याम!।
जहाँ-जहाँ जाता मन पाने तुम्हें, छोड़कर सारे काम॥
वहाँ-वहाँ तुम खड़े दीखते, मोहन! मधुर नचाते नैन।
बरबस हरते चित्त सुधा-से सुना-सुनाकर मीठे बैन॥
मधुर-मधुर मुसकाते, हृदय लगाते, कर मोहन भ्रूभंग।
परम सुखद संस्पर्श प्राप्तकर होते धन्य, सुखी सब अंग॥
सदा साथ रहते तुम मेरे, हो चाहे समीप या दूर।
जीवनमें भीतर-बाहर तुम, बस, छाये रहते भरपूर’॥
यों संयोग सुख-सुधा-रस-सागर में दोनों हु‌ए निमग्र।
उदित प्रेम निर्मल भास्कर हो मोह-निशा कर देता भग्र॥
प्रेमास्पद-सुख-रूप त्यागमय प्रेमराज्य के ये दो तत्त्व।
मिलन-वियोग नित्य रसवर्धक, दोनों रखते परम महव॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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