प्राण-प्राण! हे प्राणनाथ -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग वसंत - तीन ताल


प्राण-प्राण! हे प्राणनाथ! हे प्राण-प्रियतम! हे प्राणेश!
परम रमण! हे मधुर मधुरता, सुन्दर सुन्दरता के देश॥
बिना तुम्हारे दर्शन के अब परमाकुल ये पीडित प्राण।
पाना सहज चाहते अब ही दुस्सह विरहानल से त्राण॥
निकल भागने को आतुर ये दर्शन-हेतु त्याग तन-धाम।
सुन्दर-सुन्दर कोटि-कोटि शशि-निन्दक मुख-चन्द्रमा ललाम॥
अङ्ग-‌अङ्ग जल रहा ताप से, मन में भरा विषाद-विमर्श।
शीतल-शान्त-सुखी हो सकता नहीं, बिना पाये संस्पर्श॥
हरी-भरी हिय-लता सुधा-सी सूखी-जली विरह के ताप।
दर्शन-स्पर्श-सुधा बरसाकर जीवन-दान करो निष्पाप॥
पल-पलमें मूर्च्छित होती, फिर करती जाग करुण-क्रन्दन।
हा गोविन्द, गोपिका-वल्लभ, गोपति, प्रियतम, नँद-नन्दन॥
प्रकटी मिलन-सुधा-धारा उस विरहानल से अपने-‌आप।
अकस्मात्‌ पलभर में ही सब पलटा भाव, मिटा संताप॥
एक अनन्य तीव्र विरहानल जल उठता जब उर अन्तर।
होते प्रकट उसी क्षण प्रियतम स्वयं वहाँ व्याकुल होकर॥
उदय हु‌ए वे मन्मथ-मन्मथ, लिये मधुर मुख-पङ्कज हास।
मुरली मधुर लिये कर, छाया सभी दिशा‌ओंमें उल्लास॥
मिटी व्यथा, भूली स्मृति सारी, मानो था संतत संयोग।
मानो नित्य-प्राप्त था प्रियका चिद्रसरूप दिव्य सभोग॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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