“हरि, तुम क्यौं न हमारैं आए ?
’षट-रस व्यंजन छाँड़ि रसोई, साग बिदुर घर खाए।
ताके झुगिया मैं तुम बैठे कौन बड़प्पन पायौ ?
’जाति-पाँति कुलहू तैं न्यारौं, है दासी कौ जायौ।
मैं तोहिं सत्य कहौं दुरजोधन, सुनि तू बात हमारी।
बिदुर हमारौ प्रान पियारौ, तू विषया अधिकारी।
जाति-पाँति सबको हौं जानौं, बाहिर छाक मँगाई।
ग्वालनि कैं सँग भोजन कीन्हौं, कुल कौं लाज लगाई।
जहै अभिमान तहाँ मैं नाहीं, यह भोजन बिष लागै।
सत्य पुरुष सो दीन गहत है, अभिमानी कौं त्यागै।
’जहँ जहँ भीर परै भक्तनि कौं, तहाँ तहाँ उठि धाऊँ।
भक्तनि कै हौं संग फिरत हौं, भक्तनि हाथ बिकाऊँ।
भक्तबछल है बिरद हमारौ, वेद सुमृतिहूँ गावैं !’
सूरदास प्रभु यह निज महिमा, भक्तनि काज बढ़ावैं।।244।।