हौ फिरि बहुरि द्वारिका आयौ।
समुझि न परी मोहि मारग की, कोउ बूझौ न बतायौ।।
कहिहै स्याम सत इन छाँड्यौ, उतौ राँक ललचायौ।
तृन की छाहँ मिटी निधि माँगत, कौन दुखनि सो छायौ।।
सागर नहीं समीप कुमति कै, विधि कह अतं भ्रमायौ।
चितवत चित्त बिचारत मेरो, मन सपनै डर छायौ।।
सुरतरु दासी, दास, अस्व, गज, बिभौ बिनोद बनायौ।
‘सूरज’ प्रभु नंदसुवन मित्र ह्वै, भक्तनि लाड़ लड़ायौ।। 4238।।