हौ कैसै कै दरसन पाऊँ।
सुनहु पथिक उहिं देस द्वारिका जौ तुम्हरै सँग जाऊँ।।
बाहर भीर बहुत भूपनि की, बूझत बदन दुराऊँ।
भीतर भीर भोग भामिनि की, ताहि ठाँ काहि पठाऊँ।।
बुधि बल जुक्ति जतन करि उहि पुर हरि पिय पै पहुँचाऊँ।
अब बन बसि निसि कुंज रसिक बिनु, कौनै दसा सुनाऊँ।
श्रम कै ‘सूर’ जाउँ प्रभु पासहिं, मन मैं भलै मनाऊँ।
नव-किसोर मुख मुरलि बिना इन नैननि कहा दिखाऊँ।। 4255।।