हौं सखि नई चाह इक पाई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग रामकली


हौं सखि, नई चाह इक पाई।
ऐसे दिननि नंद कैं सुनियत, उपज्यौ पूत कन्हाई।
बाजत पनव-निसान पंचविध, रुंज-मुरज-सहनाई।
महर-महरि ब्रज-हाट लुटावत, आनँद उर न समाई।
चलौ सखी, हमहूँ मिलि जैऐ, नैकु करौ अतुराई।
कोउ भूषन पहिरयौ, कोउ पहिरति कोउ बैसैहिं उठि धाई।
कंचन-थार दूब-दधि-रोचन, गावति चारु बधाई।
भाँति-भाँति बनि चली जुवति जन, उपमा बरनि न जाई।
अमर बिमान चढे़ सुख देखत, जै-धुनि-सब्द सुनाई।
सूरदास प्रभु भक्त-हेत-हित, दुष्टनि के दुखदाई॥22॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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