होने लगे उदय तनमें आनन्द-चिह्न फिर विविध प्रकार।
हुआ उदय जब ’स्तभ’, पाद-संवाहन छूटा तब ’क्षण’ बार॥
प्रकट हुआ ’सेवाव्रत’, तत्क्षण बोला श्रीराधा से आप।
’सेवानन्द-विभोर! किया कैसे सेवा तजने का पाप’॥
चौंकी, सजग हो गयी राधा, मनसे निकली करुण पुकार।
बना विघ्र ’सेवा’ का ’सेवानन्द’ जान, देकर धिक्कार॥
तिरस्कार कर उसका बोली- ”मैं मन रख निज सुख की चाह।
आनँद-मग्र हुई, सेवा की मैंने की न तनिक परवाह॥
सचमुच मैंने किया आज यह घोर पाप, अतिशय अपराध।
सेवा-त्याग रखी मन मैंने ’सेवानन्द’-विघ्र की साध॥
कौन स्वार्थ से सनी जगत् में मेरे-जैसी होगी अन्य।
जो न कर सकी प्रियतम-सेवा रख ’सेवाव्रत’-भाव अनन्य”॥