है कर्तव्य नहीं कुछ मुझको, नहीं कहीं कुछ पाना शेष।
सत्य, तुम्हारी किंतु रूप-सुषमा से मैं खिंच रहा अशेष॥
सत्य, सभी का आत्मा हूँ मैं, करते हैं सब मुझमें प्रेम।
किंतु ‘अहं’ से भरे, चाहते सभी ‘अहं’ का ‘योगक्षेम’॥
अतुल गुणवती रूपवती तुम, अनुपम पावन रस से पीन।
रहती अहंकार से विरहित, नित्य मानती निज को दीन॥
तुम फिर जो वह नहीं जानती अपने शुद्ध सत्त्व का तत्त्व।
मानरहित नित भूली रहती अपना उपमा-रहित महत्त्व॥
इससे पल-पल और निखरता पावन रूप तुम्हारा सत्य।
पल-पल मुझे खींचता रहता, यह नव-नव आकर्षण नित्य॥
ललचाता रहता मेरा मन, करने को इस रस का पान।
शुचितम, परम सुखाकर,सुन्दर, मधुर-मधुर, अति दिव्य महान॥
इसीलिये मैं रहता करता नित्य प्रलुध रसास्वादन।
मेरी आत्मा की तुम आत्मा, मेरी एक साध्य-साधन॥
रहता बसा तुम्हारे मन-मन्दिर में, संनिधि में दिन-रैन।
इसी हेतु मैं तुम्हें छोड़कर पलक नहीं पा सकता चैन॥
विवश, प्रेमवश हूँ मैं, तुमपर नहीं कहीं कुछ भी एहसान।
सहन नहीं कर सकता मैं हूँ, कैसा कभी क्षणिक व्यवधान॥