हे मन, अजहूँ क्यौं न सम्हारै।
माया-मद मैं भयो मत्त कत जनम बादिहीं हारै।
तू तौ विषया-रंग रँग्यो हैं, बिन धोए क्यों छूटै।
लाख जतन करि देखौ, तैसैं बार-बार विष घूंटै।
रस लै-लै औटाइ करत गुर, डारि देत है खोई।
फिरि औटाए स्वाद जात है, गुर तैं खाँड़ न होई।
सेत, हरौ, रातौ अरु पियरो रंग लेत है धोई।
कारौ अपनौ रंग न छाँड़ै, अनरँग कवहुँ न होई।
कुबिजा भई स्याम-रँग-राती, तातैं सोभा पाई।
ताहि सबै कंचन सम तौलै अरु श्री निकट समाई।
नंद-नँदन-पद कमल छाँडि कै माया हाथ बिकानौ।
सूरदास आपुहि समुझावै, लोग बुरौ जिनि मानौ।।63।।