श्रीकृष्णांक
हिन्दू–संगठन का मूल-मन्त्र
स्वतन्त्रता की लहर आजकल जोरों पर है। हम लोग स्वतन्त्रता लिये व्याकुल हो रहे हैं। ईश्वर करे कि हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हो; परन्तु क्या स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर भी हम आराम से बैठ सकेंगे ? हिन्दू-मुसलमानों में शान्ति से निभ सकेगी ? या इससे भी अधिक सिर—फुटौवल होने लगेगी ? यह एक ऐसा विकट प्रश्न है, जिसका हल करना आसान नहीं। स्वतन्त्रता के दावेदार इसका यह उत्तर देते हैं कि अभी तक हिन्दुओं और मुसलमानों के मस्तिष्क में दासता ने घर कर रखा है, स्वतन्त्र होने पर दोनों स्वयं सँभल जायँगे। स्वतन्त्रता के नेता पूज्यपाद महात्मा गान्धीजी के सामने भी यह प्रश्न कई बार आया और उन्होंने सदा यही कहा कि ʻअल्पसंख्यक जातियाँ जो माँगती हैं, उन्हें दे दो।ʼ परन्तु महात्माजी के इस विचार में बहुतेरे हिन्दुओं को भय दिखायी देता है। पंजाब में भाई परमानन्द एम्० ए० समझते हैं कि ʻयह स्वतन्त्रता हिन्दुओं को बहुत महँगी पड़ेगीʼ और वह स्वप्न देखते हैं कि ʻइस छोटी स्वतन्त्रता को प्राप्त करके उन्हें केवल हिन्दुस्तान के ही मुसलमानों का सामना नहीं करना है, बल्कि उन्हें उन सारी अर्द्धसभ्य जातियों का भी सामना करना पड़ेगा जो हिन्दुस्तान के समकक्ष या उनकी पीठपर हैं।ʼ भाई परमानन्दजी का स्वप्न बिलकुल निराधार भी नहीं है। हमारे मुसलमान भीई मुसलमानी सुविधाओं पर अन्य सारी सुविधाओं को बलि करने के लिय तैयार हैं और समय-समय पर ऐसी-ऐसी माँगें उपस्थित करते रहते हें, जिनके परिणाम स्वरूप हिन्दुओं की अधिकार हीनता होती है; अब प्रश्न यह है कि क्या इसकी कोई औषधि है ? और यदि है तो क्या है ? मेरे अपने विचार में जहाँ एक ओर दासता बुरी है, वहाँ दूसरों से दबकर अपने वास्तविक अधिकारों से हाथ खींचना भी भयप्रद है, किन्तु इस किंकर्तव्यमिवूढ़ दशा में पडे़ रहना भी कम भयप्रद नही। अत: इसीकी औषधि करनी होगी। परन्तु औषधि प्रारम्भ करने के पहले रोग का निदान कर लेना उचित होग; इसलिये पहल इस बात पर विचार करना चाहिये कि अल्पसंख्यक जातियाँ क्यों ऐसी माँगें उपस्थित करती हैं और क्यों वह बहुसंख्यक हिन्दुओं की परवाह नहीं करतीं तथा उनकी सुविधाओं को उपेक्षा कर अपनी सुविधाओं पर उनकी बलि कर देना चाहती हैं। मेरे विचार से इसका कारण, और प्राय: एकमात्र कारण यही है कि हिन्दू शक्तिहीन हैं, इनमें प्रेम और एकता नहीं। असंख्य सम्प्रदायों ने हिन्दुओं के जातीय जीवन को नष्ट कर दिया है। इनकी जातीय-शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी है। इनमें कोई एक केन्द्रीय प्लेटफार्म नहीं, जहाँ सब इकटठे हो सकें। कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं, जिसपर सब एकमत हो सकें, कोई ऐसा नाम नहीं, जिसके झण्डे-तले सब एकत्र हो सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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