श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित-युगल
इस समान और अंनत प्रेम-तृषा का प्रभाव युगल के स्वरूप संबंध और क्रीडा पर अद्भुत पड़ा है। इसी के कारण उनके तन- मन घुल-मिलकर एक बने हैं और इसी के विवश बनकर वे प्रेम का एक रस उपभोग करने में समर्थ बने हैं। उनकी रसिकता का आधार भी यह तृषा ही है। रस-तृषित ही रसिक कहलाता है। रस-तृषा जितनी तीव्र होती है, रसिकता भी उतनी ही परिष्कृत और गंभीर होती है। श्याम-श्यामा-श्यामा, इसीलिए, रसिक शिरोमणि हैं कि वे एक-दूसरे के प्रेम-रूप का आस्वाद अनंत तृषा लेकर करते हैं। युगल के ऊपर उनकी अनंत प्रेम-तृषा के प्रभाव का वर्णन करते हुए श्री ध्रुवदास कहते हैं, ‘यह दोनों एक मन और एक हृदय हैं और इनको एक ही बात सुहाती है। इनकी एक ही वय है, एक से भूषण-पट हैं और इनके अंगों में एक-सी छबीली छटा सुशोभित है। यह दोनों रूप के रंग में ही भीग रहे हैं और दोनों ने अपने नेत्रों को परस्पर चकोर बना रखा है। यह दानों एक-दूसरे के संग को इस प्रकार चाहते हैं जैसे मीन जल के संग को चाहता है। इनको देखकर सखी गण परस्पर यह कहती रहती हैं कि रसिक-शिरोमणि युगल के बिना और कौन प्रेम-व्रत का एक रस निर्वाह कर सकता है। हितध्रुव रसिक सिरोमणि युगल बिनु, वृन्दावन-रस के रसिकों ने इसीलिए इनको सदैव साथ ही चित्रित किया है। साथ रहने से प्रेम और रूप एक दूसरे में प्रतिविम्बित हो उठते हैं और रूपमय प्रेम तथा प्रेम मय रूप की सृष्टि हो जाती है। श्याम सुन्दर रूपमय प्रेम हैं, और श्री राधा प्रेम मय रूप हैं। प्रेम में रूप ओतप्रोत है, और रूप में प्रेम। श्री राधा और श्याम सुन्दर इस प्रकार प्रेमालिंगन में आबद्ध हैं कि उनमें श्याम और गौर का विवेक नहीं किया जा सकता, ‘रति रस-रंग साने ऐसे अंग लपटाने, परत न सुधि कछु को है श्याम गौर री’। इनको देखकर सखीगण यह विचार करती रहती हैं कि कौन सा प्रेम और कौन सा रूप एक स्थान में एकत्रित हुआ है, ‘हितध्रुव हेरि-हेरि करत विचार सखी, कौन प्रेम, कौन रूप जुरयौ इक ठौर री,। नित्य-वर्धमान, समान प्रेम-तृषा ने यद्यपि युगल को एक दूसरे में ओत-प्रोत बना दिया है किन्तु प्रेम-क्रीडा के लिए दोनों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व होना आवश्यक है। राधा-श्यामसुन्दर एक-प्राण, एक-मन, एक-शील और एक-स्वभाव होते हुए भी अपने स्वरूपों में सर्वथा स्वतन्त्र हैं। युगल की परस्पर विलक्षणता को स्पष्ट करते हुए श्री हित प्रभु कहते हैं- ‘इनमें से एक छवि तो सुवर्ण के चंपक जैसी है और दूसरा नील मेघ के समान श्यामल है। एक काम के द्वारा चंचल बन रहा है और दूसरे ने बाह्य प्रतिकूलता धारण कर रखी है। एक मान की अनेक भंगियों से मंडित है और दूसरा रसपूर्ण चाटुता कर रहा है। निकुंज की सीमा में क्रीडा करते हुए इस महामोहन युगल को मैं देख पाऊँगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रृंगार शत-द्वितीय श्रृंखला
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