हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 84

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

उपरोक्‍त वर्णन से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने जिस वृन्‍दावन को अपनी वाणी में प्रत्‍यक्ष करने की चेष्‍टा की है, वह अनंत सौन्‍दर्य का धाम है। उसका कण-कण सुन्‍दर है और उसमें सौन्‍दर्य की तरगें उठती रहती हैं। अनंत सौन्‍दर्य सहज रूप से एकरस प्रेम के साथ बँधा होता है और, वास्‍तव में तो, गुँथा होता है। वृन्‍दावन प्रेम की वह भूमिका है जहाँँ प्रेम और सौन्‍दर्य एक दूसरे में ओत-प्रोत रहते हैं और जहाँ एकरस प्रेम का ही स्‍फुरण नित्‍य होता है। एक रस प्रेम में लेश-मात्र भी सोच और दुचित्तता नहीं होती। श्री ध्रुवदास बतलाते हैं-‘वृन्‍दावन में आनन्‍द का रंग नित्‍य छाया रहता है; वहाँ सोच और दुचित्तता का लेश भी नहीं है। वृन्‍दाविपिन-नरेश वहाँ एक-छत्र रस-राज्‍य का उपभोग करते रहते हैं;

आनंद कौ रँग नित जहाँ सोच न दुचितई लेस।
इक छत राजत राजरस वृन्‍दाविपिन नरेस।।[1]

प्रेम के साथ कामना का योग होते ही उसमें सोच और दुचित्तता का प्रवेश हो जाता है। संपूर्णतया निष्‍काम प्रेम ही एकरस होता है और एकरस प्रेम में ही सोच और चित्त-चांचल्‍य को स्‍थान नहीं होता।

एकरस प्रेम की गति धारावाहिक होती है और वह धारा अखंड होती है। प्रेम की अखंडित धारा में अन्‍तर को-विरह-वियोग -को अवकाश नहीं होता। वृन्‍दावन वह एक-रस स्‍थान बतलाया गया है जहाँ कामदेवों की सेना सेवा में नियुक्त रहती हैं-

अब सोई ठाँव कहौं सुनि लीजै। तहाँ सुप्रेम एक रस पीजै।।
वृन्‍दा विपिन एक रस ऐना। तहाँ सेवत मैननि की सेना।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रेमावली
  2. अनुरागलता

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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