हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 83

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

पूर्ण प्रेम नित्‍य, नूतन और एकरस होता है। स्‍वभावत: वृन्‍दावन भी नित्‍य नूतन और नित्‍य एकरस रहता है। नित्‍य नूतन रहने के कारण वह परम सौन्‍दर्य का और नित्‍य एक-रस रहने कारण परम प्रेम का धाम है। भारतीय रस-परंपरा में कमादेव को परम सौन्‍दर्य का प्रतीक माना जाता है। इन कामदेवों के समूह अपने परिकर-सहित वृन्‍दावन के नवल-निकुंज -मंदिर को रात-दिन सँवारते रहते हैं;

अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज।
सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्‍वज पुंज।।[1]

‘वृन्दावन की भूमि सहज रूप से हेममयी है जिसमें अनेक रंग के रत्‍न इस प्रकार जड़े हुए हैं कि उनके द्वारा विचित्र प्रकार के चित्रों की रचना हो रही है और उनमें से छवि की तरंगें उठती रहती हैं। वृन्‍दावन में कपूर की रज झलकती रहती है और उसको देखकर नेत्र और हृदय शीतल हो जाते हैं। यहाँ की प्रत्‍येक लता कल्‍पतरु है और प्रत्‍येक फूल परिजात है जो सहज एकरस रह कर यमुनाकूल पर झलमलाता रहता है। यहाँ सुन्‍दर, सुभग तमाल से कंचन की लता लिपट रही है जिसे देख कर नेत्रों को चकाचौंधी होती है। यहाँ की कुंजें ऐसे अद्भुत प्रकाश से झलमलाती रहती हैं कि करोड़ों सूर्य-चन्‍द्र भी उसकी समानता नहीं कर सकते। वृन्‍दावन के चारों ओर अथाह शोभा लिये यमुना बहती रहती है, मानों श्रृंगार रस कुंडल बाँधकर प्रवाहित हो रहा है।‘

‘वृन्‍दावन में मधुर गुंजार करती हुई मधुपावली मत्तघूमा करती है, मानो अनुराग के मेध मदं गर्जन कर रहे हैं। यहाँ के विहंग मधुर गति-ताल से कूजते रहते हैं, मानों द्रुमों पर चढ़ी रागनियाँ तान-तरंग गा रही हैं। यहाँ मृगी, मयूरी और हंसिनी प्रेमानंद से भरी हुई श्‍यामश्‍यामा रूप युगलकमलों का मकरंद मत्त होकर पान करती रहती हैं। वृन्‍दावन-बाग अनेक भाँति से फूल रहा है और यहाँ रति और सोहनी हाथ में लिये पुष्‍प-पराग झाड़ती रहती हैं। वृन्‍दावन की प्रत्‍येक कुंज में शय्या-रूपी आसन झलमलाता रहता है और प्रत्‍येक कुंज युगल की सेवा में उपयोगी नित्‍य नूतन और सहज सामग्री से पूर्ण रहती है, जिसकी छवि के कण का भी वर्णन नहीं किया जा सकता। यह वन नाना प्रकार के सुगंधि-द्रव्‍यों से सुवासित रहता है और यहाँ मोद के उदगार उठते रहते हैं। सारा वन इस प्रकारा जगमगाता रहता है मानों करोड़ों दामिनी घन में सुशोभित हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 57

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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