हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 80

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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प्रेम और रूप

प्रेम और सौन्‍दर्य की तीसरी स्थिति परात्‍पर प्रेम की उस अनाद्यनंत आनंदमयी लीला में है जिसको ‘नित्‍य-विहार’ कहा जात है। इस स्थिति में पहुँच कर प्रेम और सौन्‍दर्य एक-दूसरे के साथ ‘एक रस’ बन जाते हैं। ‘एक रस’ शब्‍द का कोष-लब्‍ध अर्थ है-एक भाव, एक रुचि, एक स्‍वाद। इसका मतलब यह हुआ कि नित्‍य-विहार में प्रेम और सौन्‍दर्य एक ही भाव से आवेशित, एक ही रुचि से प्रेरित और एक ही स्‍वाद से पूर्ण रहते हैं। श्री ध्रुवदास ने कहा है कि प्रेम और सौन्‍दर्य की एक रस स्थिति वृन्‍दावन की सघन कुंजो को छोड़कर तीनों लोकों में कहीं नहीं है-

ढूंढि फिरै त्रैलोक में बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोउ एक रस बसत निकुंजनि माहिं।।[1]

वास्‍तव में हम, लोक में और लोक-संबंधित काव्‍य में, प्रेम और सौन्‍दर्य की एक-रस स्थिति की कल्‍पना नहीं कर सकते। यहाँ इनका एक साथ व्‍यंजित हो जाना ही, बड़ी उपलब्धि है। प्रेम-स्‍वरूप वृन्‍दावन की सघन कुंजों में प्रेम की यह दो सहज अभिव्‍यक्तियाँ-प्रेम और सौन्‍दर्य-प्रेम के ही मधुर बंधन में बँधती हैं और परस्‍पर एक भाव, एक स्‍वाद एक रुचि रहकर प्रेम-सौन्‍दर्य रस का पान करती हैं। सौन्‍दर्य का फूल-अत्‍यन्त उन्‍नत और उज्‍ज्‍वल रूप श्री राधा हैं और प्रेम का फूल श्‍यामसुन्‍दर हैं। यह दोनों अनुराग के बाग में खिल रहे हैा और दोनों में राग[2] का रुचिकारी रंग बढ़ा हुआ हैं-

रूप कौ फल रँगीली बिहारिनि, प्रेम कौ फूल रसीलौ बिहारी।
फूलि रहे अनुराग के बाग में, राग कौ रंग बढ्यौ रुचिकारी।।[3]

भोक्‍ता-भोग्‍य के अपने पृथक रूपों में स्थित रहते हुए प्रेम और सौन्‍दर्य, यहाँ, एक दूसरे में इस प्रकार ओत-प्रोत रहते हैं कि हम इन दोनों को प्रेम भी कह सकते हैं और सौन्‍दर्य भी। ध्रुवदास जी दोनों रूपों को, पहिले तो, यह कह कर निर्दिष्‍ट कर देते हैं कि भोक्ता-रूप घनश्‍याम प्रेम के तमाल हैा और भोग्‍य-रूपा श्रीराधा रूप की बेलि हैं, और फिर दोनें को, एक स्‍थान में प्रेम-शय्या पर परस्‍पर उलझी हुई रूप की दो बेलियाँ कहते हैं[4] और दूसरे स्‍थान में उनको सहज प्रेम की दो सीमाएं बतलाते हैं -‘सहज प्रेम की सींव दोउ नव किशोरवर जोर’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रेमावली
  2. प्रेम
  3. श्री ध्रुवदास-आनन्‍दलता
  4. लपटि रहे दोऊ लाडिले अलबेली लपटानि।
    रूप बेलि विवि अरूझि परीं प्रेम सेज पर आनि।।

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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