हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 68

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त

इन दोनों की प्रीति को अपने लता-गुल्‍म में प्रतिबिंबित करने का वृन्‍दावन का स्‍वभाव है। रसिक संतों ने वर्णन किया है। कि वृन्‍दावन में कहीं तो मर्कत-मणि[1] के तमालों से कंचन को कोमल बेलि लिपटी हुई है और कहीं कंचन के तमालों से मर्कत-मणि की बेलि उलझ रही है। कहीं गौर श्‍याम के आश्रित हैं और कहीं श्‍याम गौर के। विलक्षणता यह है कि दोनों स्‍थानों में सौन्‍दर्य की अभिव्‍यक्ति समान है।

भोक्‍ता और भोग्‍य में समान रस-स्थिति का यह सिद्धान्‍त भरत की रस-परिपाटी के अनुकूल एवं गौड़ीय भक्ति-रस-सिद्धान्‍त के प्रतिकूल है। गौड़ीय-सिद्धान्‍त में राधा-माधव की पारस्परिक प्रीति में तारतम्‍य स्‍वीकार किया गया है। श्री राधा का प्रेम श्री कृष्‍ण के प्रेम की अपेक्षा कहीं अधिक गुरु एवं गंभीर तथा उससे विलक्षण बतलाया गया है। मादन महाभाव का प्रकाश केवल श्री राधा में होता है, श्री कृष्‍ण में नहीं। प्रेमाधिक्‍य के कारण ही श्रीराधा वृन्‍दावनेश्‍वरी हैं एवं श्रीकृष्‍ण सब प्रकार पूर्ण एवं स्‍वतन्‍त्र होते हुए भी उनके सर्वथा अधीन हैं। राधावल्‍लभीय सिद्धान्‍त में श्री राधा-कृष्‍ण एक ही रस की दो मूर्तियाँ हैं, अत: उनमें किसी तारतम्‍य को अवकाश नहीं है। यहाँ भी श्री कृष्‍ण सर्वथा श्री राधा के अधीन हैं। नाभा जी ने अपने छप्‍पय में श्री हित प्रभु का परिचय उनको ‘राधाचरणप्रधान’ कह कर दिया है और यह बात समस्‍त राधाकृष्‍ण-उपासक आचार्यो में केवल श्रीहिताचार्य के सम्‍बन्‍ध में ही कही है। हित-सम्‍प्रदाय में श्री राधा को अपूर्व प्रधानता प्राप्‍त है, किन्‍तु वह किसी कारण विशेष को लेकर नहीं है, वह सहज है। श्री राधा भोग्‍य सरूपा हैं, वे रस-दात्री हैं , और रसभोक्‍ता श्री श्‍यामसुन्‍दर स्‍वाभाविक रूप से उनके अधीन हैं। सेवक जी ने श्री राधा को वृन्‍दावन की नित्‍य-उदित सहज चन्द्रिका कहा है-‘सहजविपिन-वर उदित चाँदिनी’। राधा-माधव में सब प्रकार से समान रस की स्थिति होते हुए भी श्री राधा की प्रधानता प्रेम के क्षेत्र में प्रेम-पात्र की स्‍वभाविक प्रधानता को लेकर है। श्री बल्‍लभरसिक ने बतलाया है कि यद्यपि दोनों की प्रीति सब लोग समान कहते हैं, किन्‍तु प्रिया महबूब[2] हैं एवं प्रियतम आशिक[3] हैं।

जद्यपि दोउन की लगन, सब मिलि कहैं समान।
पै प्‍यारी महबूब है, प्‍यारौ आशिक जान।।[4]

महबूब होने के नाते वृन्‍दावन-रस में श्री राधाचरणों की सहज प्रधानता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्‍याम मनि
  2. प्रेम-पात्र
  3. प्रेमी
  4. बारह बाट अठारह पैडे़

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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