हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 67

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त


टूटै सीस दीठ नहि छूटै, तदपि प्रीति अति थोरी।।
तन-मन होइ चकोरी चंदा, शशि ह्वै शशि छवि पीवै।
तौ कछु स्‍वाद और ही पावै, पियत जु प्‍यासी जीवै।।
तद्यपि प्रीति इकंगी कहिये, जहाँ न प्रेमी दोऊ।
उघरहि रस जु चकोरहि, इक-टक चाहै चंदा सोऊ।।
ह्वै चकोर वह चहैं चकोरहि, यह चंदा ह्वै चंदहि।
छिन-छिन में तन पलटैं दोऊ, अरूझि प्रेम के फंदहिं।।
याकौ वामें, वाकौ यामें, पलटि पलटि हित पावै।
छिन-छिन प्रेम-पयोनिधि संगम, अधिक अधिक अधिकावै।।
ज्‍यों द्वै दरपन बीच दीप की, अगनित आभा दरसै।
द्विगुन, चौगुनौं,, फेरि अठ गुनौं, त्‍यौं अनंत हित सरसै।।
अनु प्रमान अनुमान कह्यौ, यह प्रीति बात कछु औरै।
ताकी थाह कौन अवगाहै, दूरहि तें मति बौरे।।
‘भोरीहित’। जब द्रवहिं व्‍यास-सुत गूँगे लौं गुर खाऊँ।
रोम रोम भरि रहै मिठाई ना कछु कहौं, कहाऊँ।।[1]

एक रंग, रुचि, एक वय, एकै भाँति सनेह।
एकै शील, सुभाव मृदु, रस के हित दो देह।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री हित भोरी की वाणी
  2. रति-मंजरी

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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