टूटै सीस दीठ नहि छूटै, तदपि प्रीति अति थोरी।।
तन-मन होइ चकोरी चंदा, शशि ह्वै शशि छवि पीवै।
तौ कछु स्वाद और ही पावै, पियत जु प्यासी जीवै।।
तद्यपि प्रीति इकंगी कहिये, जहाँ न प्रेमी दोऊ।
उघरहि रस जु चकोरहि, इक-टक चाहै चंदा सोऊ।।
ह्वै चकोर वह चहैं चकोरहि, यह चंदा ह्वै चंदहि।
छिन-छिन में तन पलटैं दोऊ, अरूझि प्रेम के फंदहिं।।
याकौ वामें, वाकौ यामें, पलटि पलटि हित पावै।
छिन-छिन प्रेम-पयोनिधि संगम, अधिक अधिक अधिकावै।।
ज्यों द्वै दरपन बीच दीप की, अगनित आभा दरसै।
द्विगुन, चौगुनौं,, फेरि अठ गुनौं, त्यौं अनंत हित सरसै।।
अनु प्रमान अनुमान कह्यौ, यह प्रीति बात कछु औरै।
ताकी थाह कौन अवगाहै, दूरहि तें मति बौरे।।
‘भोरीहित’। जब द्रवहिं व्यास-सुत गूँगे लौं गुर खाऊँ।
रोम रोम भरि रहै मिठाई ना कछु कहौं, कहाऊँ।।[1]
एक रंग, रुचि, एक वय, एकै भाँति सनेह।
एकै शील, सुभाव मृदु, रस के हित दो देह।।[2]