हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 66

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त

समान आश्रयों को पाकर ही प्रीति का पूर्ण रूप प्रकाशित होता है। विषम-प्रेम को पूर्ण प्रेम नहीं कहा जा सकता। हित भोरी ने अपने एक पद में प्रेम के प्रकाश की तीन भूमिकाओं का वर्णन करके इस तथ्‍य को स्‍पष्‍ट कर दिया है। वे कहते हैं -‘प्रीति की रीति का मैं किस प्रकार वर्णन करूँ ! मैं अपने मन में विचार करते-करते थक जाता हूँ, फिर भी मन इसमें प्रवेश नहीं पाता। संसार में चकोर की प्रीति धन्‍य मानी गई है। वह चन्‍द्र की ओर एक-टक देखता रहता है और अपने प्राण रहते उधर से दृष्टि नहीं हटाता; फिर भी चकोर की यह प्रीति अति अल्‍प है। प्रेम के प्रकाश की यह पहिली ही भूमिका है। जब चकोर का तन-मन चन्‍द्र बनकर चन्‍द्र की छवि का पान करने लगे और प्रतिक्षण उसकी रस-तृषा बढ़ती रहे, तब उसको विलक्षण ही आस्‍वाद आवे। यह दूसरी भूमिका है। किन्‍तु इसमें चकोर और चन्‍द्र के समान-प्रेमी ने होने के कारण प्रेम एकांगी रहता है, और यह भी अच्‍छा नहीं लगता कि चन्‍द्रमा चकोर के प्रेम-पाश में बँधकर एक टक उसकी ओर देखता रहे। इसमें प्रेम-पात्र की सहज सलज्‍ज प्रीति के अत्‍यन्‍त व्‍यक्‍त हो जाने से रस-हानि हो जायगी। प्रेम का पूर्ण स्‍वरूप तब बनता है जब चकोर चन्‍द्र बनकर चन्‍द्र से प्रेम करे और चन्‍द्र चकोर बनकर चकोर से, और प्रेम के अद्भुत फंद में उलझ कर दोनों क्षण-क्षण में अपने शरीरों को बदलते रहे हैं। जब चकोर अपने प्रेम को चन्द्रं में और चन्‍द्र अपने प्रेम को चकोर में ज्‍यौं-का त्‍यौं पाता है, तब, इन दोनों प्रेमों के संगम से, प्रेम-पयोनिधि अमर्यादित बढ़ता है। जिस प्रकार दो दर्पणों के बीच में एक दीपक रख देने से वह अगणित रूपों में प्रतिबिंबित हो उठता है , उसी प्रकार समान आश्रयों का पाकर प्रेम भी अनंत बन जाता है। मैंने प्रेम का यह वर्णन अपने अनुमान के आधार पर किया है। वास्‍तव में, प्रेम अनिर्वचनीय तत्त्व है। जब उसको दूर से देखकर ही बावली हो जाती हैं तो उसकी गहराई कौन जान सकता है।‘[1]

श्री हितप्रभु ने, जैसा हम देख चुके हैं, श्री राधा-माधव को जल-तरंगवत एक-दूसरे में ओत-प्रोत बतलाया है। अत: इनके स्‍वरूपों में थोड़ा-सा भी तारतम्‍य कर देने से प्रीति का वह उज्‍ज्वलतम रूप निष्‍पन्‍न नहीं हो सकता, जिसका वर्णन हितभोरी ने अपने पद में किया है। ध्रुवदास जी कहते हैं, ‘श्‍यामा-श्‍याम की एक-सी रुचि है, एक-सी वय है ओर एक ही प्रकार की परस्‍पर प्रीति है। इन दोनों का शील एक-सा हे और एक-सा ही मृदुल स्‍वभाव है। इन्‍होंने तो रस-विलास के लिये दो देह धारण किये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रीति रीति कहि आवै।
    करि विचार हिय हार रहत हौं, क्‍यों हूँ मन न समावै।।
    चंदहि रहत एक टक देखत, सो जग धन्‍य चकोरी।

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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