हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 62

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त

भजनदास जी बतलाते हैं- ‘तीव्र प्रेम का यह रूप है कि तन से तन, मन से मन, प्राण से प्राण एवं नेत्र से नेत्र मिले रहने पर भी चैन नहीं मिलता’।

तन सौं तन मन सौं जु मन मिले प्राण अरु नैन।
तीव्र प्रेम को रूप यह तऊ हिेये नहि‍ चैन।।

साधारणतया विप्रलम्भ से संयोग की पुष्टि मानी जाती है। इस सम्‍बन्‍ध में यह कारिका प्रसिद्ध है:-

न विप्रलंभेन सभोग: पुष्टिमश्‍नुते।
कषायिते हि वस्‍त्रादौ भूयान् रागोहि वर्धते।।

श्री रूप गोस्‍वामी ने ‘उज्‍ज्‍वल नीलमणि’ में इस कारिका को स्‍वीकृति-पूर्वक उद्धृत किया है एवं मधुर रस का पूर्ण परिपाक ‘समृद्धिमान संयोग’ में माना है। समृद्धिमान् संयोग का लक्षण यह किया है ‘पारतन्‍त्र्य के कारण वियुक्‍त एवं एक-दूसरे को देखने में असमर्थ नायिका-नायक के उपभोग के आधिक्‍य को समृद्धिमान संयोग कहते हैं।

दुर्लभालोकयो र्यूनो: पारतन्‍त्र्यद्वियुक्तयो:।
उपभोगातिरेको य: कीर्त्‍यते स समृद्धिमान्।।[1]

नित्‍य-विहार में श्री युगलकिशोर अत्‍यन्‍त समृद्ध संयोग का ही अनुभव करते हैं, किन्‍तु उसका नियोजक दुर्लभ-दर्शन एवं पारतन्‍त्र्य नहीं है। यहाँ प्रेम का स्‍वरूप ही ऐसा है कि क्षण-क्षण में नवीन रुचि के तरंग उठते रहते हें और श्रीराधा-माधव प्रतिक्षण एक दूसरे के सर्वथा नवीन स्‍वरूप का आस्‍वाद करते रहते हैं।

आलकांरिकों ने विप्रलम्‍भ श्रृंगार के चार भेद बतलाये हैं-पूर्वानुराग, प्रवास, मान, एवं करूणा। नित्‍य-विहार में पूर्वानुराग, प्रवास एवं करूणा के लिये तो स्‍थान ही नहीं है, केवल ‘प्रणय-मान’ का ग्रहण किया गया है, और वह इसलिये नहीं कि मान के द्वारा संयोग की पुष्टि होती है, किन्‍तु इसलिये कि इसमें प्रेम के एक आवश्‍यक अंग का प्रकाशन होता है। प्रेम का वह अंग है उसकी सहज कुटिल गति, उसकी स्‍वाभाविकवामता। एक श्‍लोक प्रसिद्ध है कि ‘नदियों की, वधुओं की, भुजंगों की एवं प्रेम की गति अकारण वक्र होती है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उ. नी. पृ. 507

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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