हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 60

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त


सुनियत यहाँ दूसर कोउ नाहीं।
बिना एक चाह परिछाहीं।।
चाहनि सों पूछी में बाता, प्रीतम कही कौंन रंग राता।
तिनि मूसकाइ बात यह कही, नित्‍य-मिलन अनमिलनौं सही।[1]

अन्‍यत्र वे कहते हैं, ‘प्रेम में जैसे प्रेमी और प्रेम-पात्र एक प्राण, दो देहवाले होते हैं, श्रृंगार-रस में वैसी ही स्‍थति संयोग और वियोग की है।’ बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये उन्‍होंने नायक को विरह-रूप और नायिका को संयोग-रूप बतलाया है। ‘श्‍याम विरह है और गोरी संयोगिन है। विचित्रता यह है कि श्‍याम और गौर-वियोग और संयोग-अदल-बदल होते रहते हैं। कभी संयोग विरह-जैसा प्रतीत होता है, और कभी विरह संयोग-जैसा प्रतीत होता है। दृष्टि न आने पर ‘श्‍याम’ कहलाते हैं और जब दृष्टि में आने लगते हैं तब ‘गोरी’ कहलाते हैं। गौर-श्‍याम इस प्रकार मिलकर रहते हैं कि न तो उनको संयुक्‍त कहा जा सकता है और न वियुक्‍त ही। श्री वृन्‍दावन श्रृंगार-रस है और गौर-श्‍याम संयोग-वियोग हैं।

त्‍यौं सिंगार बिछुरन मिलन एक प्राण दो देह।

विरह नाम नायक कौ धरयौ, नाम संयोग नायिका करयौ।
स्‍याम विरह गोरी संजोगनि, अदल बदल तिहिं सकै न कोउ गानि।।
डीठि न आवै श्‍याम कहावै, डीठि परे गोरी छवि पाबै।
गौर श्‍याम ऐसे मिलि रहे, बिछुरे भेंटे जाहिं न कहे।।
वृन्‍दावन सिंगार, गौर श्‍याम बिछुरन मिलन।
तिहि ठां करत विहार, हित माते कहत न बनैं।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. केलि कल्‍लोल
  2. केलि कल्‍लोल

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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