श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
प्रस्तावना
प्रेम-दृष्टि की यथार्थता एवं द्रष्टा-दृश्य की पारमार्थिक अभिन्नता का प्रतिपादन करने के बाद राधावल्लभीय विचारकों के लिये दृश्यमान प्रपंच की तात्विक गवेषणा का कोई मूल्य नहीं था और उनके द्वारा की गई इस सम्बन्ध की कोई ऊहापोह प्राप्त नहीं है। इसके विरुद्ध इन प्रेमी संतों के ऐसे अनेक वाक्य मिलते हैं जिनमें उन्होंने उपासकों को इस झमेले में न पड़ कर केवल अपनी प्रेमोपासना में रत रहने का परामर्श दिया है। इस सिद्धान्त में उपासना का स्वरूप भी अन्य उपासनाओं से कुछ विलक्षण है। उपासना का आधार माहात्म्य-ज्ञान है और साधारणतया वह भगवदैश्वर्य के द्वारा प्रेरित होता है। भगवत-स्वरूप प्रेम की उपासना में, जैसा हम अभी देख चुके हैं, प्रेम का अमित माधुर्य ही इस ज्ञान का प्रयोजक होता है। उपासक का हृदय ही नहीं, उसका संपूर्ण अस्तित्व प्रेम के अद्भुत माधुर्य की एक झलक पाकर सदैव के लिये उसके सामने नत हो जाता है। प्रेम के स्वरूप-गत भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता उपासना के क्षेत्र में क्रमशः उपासक, उपास्य और गुरु कहलाते हैं और इन तीनों को एक ही तत्त्व का त्रिविध रूप मान कर प्रेम की उपासना प्रवृत्त होती है। इस उपासना में उपास्य और गुरु की उपासना के समान ही उपासक की उपासना को महत्त्व दिया गया है। उपास्य और गुरु तो उपासनीय हैं ही, किन्तु उपासक भी प्रेम का स्वरूपगत तत्त्व होने के कारण इन दोनों के समान ही उपासनीय है। श्री हित प्रभु ने प्रेमोपासना को पूर्ण बनाने वाले इस “भक्त भजन” पर कई स्थलों पर बल दिया है और सेवक जी की वाणी में इस नाम का एक स्वतंत्र एवं समृद्ध प्रकरण ही लगा हुआ है। प्रेम का उपासक प्रेम-स्वरूप है, अतः उसकी उपासना का प्रकार समुद्र में उठने वाली उन तरंगों के समान बतलाया है जो नित्य नये रूपों में उठ कर समुद्र में ही समाती रहती हैं। इस प्रकार की उपासना में भगवदैश्वर्य-जनित माहात्म्य ज्ञान एवं लौकिक और वैदिक क्रिया-कलापों के लिये अवकाश नहीं रहता। इन दोनों बातों का परित्याग इस उपासना मार्ग में बिल्कुल प्रारंभ में ही कर दिया गया है। |
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