हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 6

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
प्रस्तावना


परम तत्त्व को ज्ञान-स्वरूप मानने वाली श्रुतियों ने द्रष्टा और दृश्य की एकता को परम ज्ञान का लक्षण बतलाया है। ‘तत्त्वमसि’ महावाक्य इस तथ्य का सूचन करता है और अनेक श्रुतियों ने नानात्व का निेषेध किया है। प्रेम दृश्य का द्रष्टा सदैव प्रेम ही होता है। अतः द्रष्टा-दृश्य की अभिन्नता प्रेम को सहज सिद्ध है और इसीलिये हम प्रेम की दृष्टि को मिथ्या नहीं कह सकते। प्रेम की दृष्टि को पक्षपातपूर्ण समझा जाता है और यह सत्य भी है। भवभूति ने प्रेम को ही एक “अहैतुक पक्षपात” बतलाया है, किन्तु प्रेम का यह पक्षपात अपने प्रति पक्षपात है- आत्म-पक्षपात है और यह उसका दोष न होकर भूषण है। प्रेम की दृष्टि अपने प्रति पक्ष-पातिनी होकर केवल प्रेम को ही ग्रहण करती है। ज्ञान की आत्म-पक्षपाती है और सदैव अपने को ही-ज्ञान को ही- लक्षित करता है।

प्रेम-दृष्टि की यथार्थता एवं द्रष्टा-दृश्य की पारमार्थिक अभिन्नता का प्रतिपादन करने के बाद राधावल्लभीय विचारकों के लिये दृश्यमान प्रपंच की तात्विक गवेषणा का कोई मूल्य नहीं था और उनके द्वारा की गई इस सम्बन्ध की कोई ऊहापोह प्राप्त नहीं है। इसके विरुद्ध इन प्रेमी संतों के ऐसे अनेक वाक्य मिलते हैं जिनमें उन्होंने उपासकों को इस झमेले में न पड़ कर केवल अपनी प्रेमोपासना में रत रहने का परामर्श दिया है।

इस सिद्धान्त में उपासना का स्वरूप भी अन्य उपासनाओं से कुछ विलक्षण है। उपासना का आधार माहात्म्य-ज्ञान है और साधारणतया वह भगवदैश्वर्य के द्वारा प्रेरित होता है। भगवत-स्वरूप प्रेम की उपासना में, जैसा हम अभी देख चुके हैं, प्रेम का अमित माधुर्य ही इस ज्ञान का प्रयोजक होता है। उपासक का हृदय ही नहीं, उसका संपूर्ण अस्तित्व प्रेम के अद्भुत माधुर्य की एक झलक पाकर सदैव के लिये उसके सामने नत हो जाता है। प्रेम के स्वरूप-गत भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता उपासना के क्षेत्र में क्रमशः उपासक, उपास्य और गुरु कहलाते हैं और इन तीनों को एक ही तत्त्व का त्रिविध रूप मान कर प्रेम की उपासना प्रवृत्त होती है। इस उपासना में उपास्य और गुरु की उपासना के समान ही उपासक की उपासना को महत्त्व दिया गया है। उपास्य और गुरु तो उपासनीय हैं ही, किन्तु उपासक भी प्रेम का स्वरूपगत तत्त्व होने के कारण इन दोनों के समान ही उपासनीय है। श्री हित प्रभु ने प्रेमोपासना को पूर्ण बनाने वाले इस “भक्त भजन” पर कई स्थलों पर बल दिया है और सेवक जी की वाणी में इस नाम का एक स्वतंत्र एवं समृद्ध प्रकरण ही लगा हुआ है। प्रेम का उपासक प्रेम-स्वरूप है, अतः उसकी उपासना का प्रकार समुद्र में उठने वाली उन तरंगों के समान बतलाया है जो नित्य नये रूपों में उठ कर समुद्र में ही समाती रहती हैं। इस प्रकार की उपासना में भगवदैश्वर्य-जनित माहात्म्य ज्ञान एवं लौकिक और वैदिक क्रिया-कलापों के लिये अवकाश नहीं रहता। इन दोनों बातों का परित्याग इस उपासना मार्ग में बिल्कुल प्रारंभ में ही कर दिया गया है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः