हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 59

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त


इस प्रकार, संयोग और वियोग दोनों के अपूर्ण होने के कारण, रस की वही स्थिति आदर्श मानी जा सकती है जिसमें संयोग और वियोग एक साथ उपस्थित रहकर अपने भिन्‍न प्रभावों के द्वारा, प्रेम के एकान्‍त अनुभव को पुष्‍ट बनाते हों। ‘वृन्‍दावन रस’ में इसी स्थि‍ति का ग्रहण किया गया है। संयोग की परावधि तो यह है कि एक क्षण के लिये भी दोनों वियुक्‍त नहीं होते और वियोग की सीमा यह है कि नित्‍य संयुक्‍त होने पर भी अपने को अनमिले मानते हैं। भजनदास जी कहते हैं- ‘युगल किशोर के अंग-अंग मिले हुए हैं, फिर भी वे अपने को अलमिले मानकर अकुलाते रहते हैं। जहाँ का संयोग ही विरह रूप है उस रस का वर्णन नहीं किया जा सकता।

मिले अनमिले रह‍त विवि अंग-अंग अकुलांइ।
प्रेमहि विरह सरूप जहाँ यह रस कह्यौ न जाइ।।

ध्रुवदास जी कहते हैं, जहाँ देखना ही विरह के समान है, वहाँ के प्रेम का वर्णन कोई क्‍या करे! प्रेमी का वर्णन कोई क्‍या करे ! प्रेमी कभी बिछुड़ता नहीं है और न वह कभी मिला ही रहता है। प्रेम की यह अद्भुत एकरस स्थिति है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’

देखिवौ जहाँ विरह सम होई, तहां कौ प्रेम कहा कहि कोई।[1]

प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ मिल्‍यौ न सो पुनि आहि।
कोन एकरस प्रेम कौ कहि न सकत ध्रुव ताहि।।[2]

मोहन जी प्रेम की इस एकत्र संयोग-वियोगमयी स्थिति को स्‍पष्‍ट करते हुए कहते हैं- ‘प्रियतम की खोज में मेरा मन जब अत्‍यन्‍त अधीर होने लगा और किसी प्रकार उसका पता लगता ही न था, तब अनुभवियों ने मुझे बताया कि इस प्रेमदेश में अपनी चाह की छाया के अतिरिक्‍त अन्‍य कोई रहता ही नहीं है जिससे तुम कुछ जान सको। मैंने यह सुनकर, अपनी चाहों से पूछा कि तुम हो बताओ कि प्रियतम[3] का स्‍वरूप क्‍या है? उन्‍होंने मुस्‍करा कर जवाब दिया कि नित्‍य-मिलन में अनमिलना ही उसका स्‍वरूप है।‘

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रहस्‍य मंजरी
  2. प्रेमावली
  3. प्रेम

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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