श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
द्विदल-सिद्धान्त
मिले अनमिले रहत विवि अंग-अंग अकुलांइ। ध्रुवदास जी कहते हैं, जहाँ देखना ही विरह के समान है, वहाँ के प्रेम का वर्णन कोई क्या करे! प्रेमी का वर्णन कोई क्या करे ! प्रेमी कभी बिछुड़ता नहीं है और न वह कभी मिला ही रहता है। प्रेम की यह अद्भुत एकरस स्थिति है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’ देखिवौ जहाँ विरह सम होई, तहां कौ प्रेम कहा कहि कोई।[1] प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ मिल्यौ न सो पुनि आहि। मोहन जी प्रेम की इस एकत्र संयोग-वियोगमयी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘प्रियतम की खोज में मेरा मन जब अत्यन्त अधीर होने लगा और किसी प्रकार उसका पता लगता ही न था, तब अनुभवियों ने मुझे बताया कि इस प्रेमदेश में अपनी चाह की छाया के अतिरिक्त अन्य कोई रहता ही नहीं है जिससे तुम कुछ जान सको। मैंने यह सुनकर, अपनी चाहों से पूछा कि तुम हो बताओ कि प्रियतम[3] का स्वरूप क्या है? उन्होंने मुस्करा कर जवाब दिया कि नित्य-मिलन में अनमिलना ही उसका स्वरूप है।‘ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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