श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
संस्कृत-साहित्य
श्री शंकरदत्त जी (शंकर कवि):- यह श्रीचतुर शिरोमणि लाल गोस्वामी के शिष्य थे। लेखक ने इनके तीन ग्रन्थ देखे हैं- श्री हरिवंश वंश प्रशस्ति, अलंकार शंकर और प्राप्त श्लोकी व्याख्या। श्री हरिवंश वंश प्रशस्ति में कवि ने नारायण से लेकर अपने गुरु तक का वंश-वर्णन बड़े विस्तार पूर्वक और कवित्वपूर्ण ढंग से किया है। पीछे के सर्गों में हित प्रभु के प्रधान शिष्यों का चरित्र लिखा है और अन्तिम-अठारहवें-सर्ग में अपने वंश का परिचय दिया है। यह ग्रन्थ सं. 1854 में पूर्ण हुआ है।[1] अलंकार शंकर में छन्दों और अलंकारों का विशद वर्णन है। इसमें छः रत्न हैं और इसकी रचना सं. 1867 में हुई है। श्री प्रियादास (रीवां वाले)- यह प्रसिद्ध वाणीकार गोस्वामी चन्द्रलाल जी के शिष्य थे[2] और रीवां के रहने वाले थे। इन्होंने अपने ग्रन्थों में, प्रधानतया श्रीमद्भागवत के आधार पर सामान्य भक्ति-सिद्धान्त का बड़ा विशद, मौलिक और विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। इनका एक ग्रंथ 'सुसिद्धान्तोत्तमः' श्री सरयूप्रसाद मिश्र ने सं. 1957 में प्रयाग से प्रकाशित किया था, किंतु अब वह अलभ्य है। इस ग्रन्थ के 'परमानंद प्राप्ति कारण वर्णनम्' नामक पंचम 'विश्राम' की 64वीं कारिका में श्री प्रियादास ने बतलाया है कि उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार पर चार ग्रंथों की रचना की है।[3] प्रकाशक ने इस श्लोक पर एक पाद टिप्पणी दी है कि प्रियादास जी ने वेदान्तसार की रचना सं. 1864 में और श्रुति तात्पर्यामृत की रचना सं. 1870 में की थी। लेखक ने यह दोनों ग्रंथ नहीं देखे किंतु उसके पास उपर्युक्त श्लोक में उल्लिखित तीसरे ग्रंथ भक्ति-प्रभा की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति है। भक्ति-प्रभा ग्रंथ सं. 1871 की आषाढ़ बदी 8 शनिवार को पूर्ण हुआ है। इसमें भी भक्ति का विशद व्याख्यान हुआ है। इसमें 4 मयूखें हैं। प्रथम मयूख में भक्ति का परत्व और नित्यत्व निरूपित हुआ है। द्वितीय मयूख में परा और अपराभक्ति का वर्णन, तृतीय मयूख में भागवत धर्म का परिचय दिया गया है और चतुर्थ मयूख में परमानंद का वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेद बाण वसुक्ष्माभिर्समिते वैक्रमाब्दके। फाल्गुणे द्वादशी शुक्ले ग्रन्थ पूर्ति रभूविच्छुआ।।
- ↑ चन्द्रलाल गुरुं वंदे मनसोदैवतं परम्। शब्दज्ञानविहीनैर्यः कारयेद् ग्रंथमुत्तमम्।। (सु. सि. 1-1)
- ↑ एतस्मादुत्तमाच्छास्त्राज्जातं ग्रंथ चतुष्टयम्। तत्त्व निश्चय वेदान्तसार भक्ति प्रभादिकम्।। (सु. सि. 5-34)
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