हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 49

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


हित नित्‍य क्रीड़ा-परायण तत्‍व है। यह अनंत भावों एवं रूपों में नित्‍य क्रीड़ा करता रहता है। विभिन्‍न क्रीड़ाओं में हितस्‍वरूप के विभिन्‍न प्रकाशन को लेकर क्रीडावैचित्री का निर्माण होता है। जिस लीला में जितना और जिस प्रकार हित का प्रकाशन होता है, वैसा ही लीला का स्‍वरूप बनता है। वात्‍सल्‍य, सख्‍य आदि रसों की लीलाएँ हित की ही लीलाएं हैं किन्‍तु इनमें से किसी में हित के सहज पूर्णस्‍वरूप की अभिव्‍यक्ति नहीं होती। सभी रसज्ञों को अनुभव है कि हित किंवा प्रेम का सहज एवं चरम परिपाक उज्‍जवल-रस में होता है। उज्ज्‍वल-रस में प्रेम के जितने सुन्‍दर और समृद्ध रूप प्रगट होते हैं, उतने अन्‍य किसी रस में नहीं। आलंकारिकों ने भी संपूर्ण काव्‍य-रसों में श्रृंगार रस को ही रसराज माना है। श्रृंगार रस का स्‍थायी भाव रति है और रति है रतिमनुष्‍य की अत्‍यन्‍त मौलिक और प्रबल वृत्ति है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में अन्‍य आठ रसों के स्‍थायी भावों में से अनेक रति के ही विभिन्‍न वि‍वर्त हैं। गौड़ीय वैष्‍णव-रस-शास्‍त्र में भी यह सब कृष्‍णरति के ही विभिन्‍न रूप माने जाते हैं इसका अर्थ यह हुआ कि एक रति किंवा प्रेम ही विभिन्‍न कारण-कार्यो के योग से विभिन्‍न रसों के रूप में आस्‍वादित होता है।

रस[1] की स्थिति तीन स्‍थानों में देखी जाती है- लोक में, काव्‍य में और भगवद्भक्‍तों में। लोक का व्‍यक्तिगत एवं लौकिक कामभाव ही काव्‍य में कवि-प्रतिभाजन्‍य- ‘विभावन’ नामक अलौकिक व्‍यापार का योग पाकर अलौकिक एवं सर्व-रसिक-संवेद्य श्रृंगार रस कहलाता है। लोक में अन्‍य व्‍यक्तियों की जिन कामचेष्‍टओं को देखकर मन में जुगुप्‍सा का उदय होता है, वही काव्‍य और नाट्य में सत्‍कवि द्वारा निबद्ध होकर आनंद विधायक बन जाती है। लोक में रस[2] की निष्‍पति उसके कारण, कार्य एवं सहकारी भाव काव्‍य में क्रमश: विभाव, अनुभव एवं संचारी भाव कहलाते हैं। नाट्यरस के लिये भरत का य सूत्र प्रसिद्ध है, -विभावानुभाव-संचारियोगाद्रस निष्‍पत्ति‍:’-विभाव अनुभाव और संचारी के योग से रस निष्‍पत्ति होती है। इसी सूत्र का ग्रह काव्‍यरस के विवेचन के लिये कर लिया गया है।

आलंकारिकों ने काव्‍यरस को अलौकिक सिद्ध करने में बड़े पराक्रम का प्रदर्शन किया है। उन्‍होंने उसको स्‍वप्रकाश, चिन्‍मय, अखंड एवं ब्रह्मास्‍वाद के समकक्ष बताया है और यह सब किया है सहृदयों के प्रत्‍यक्ष अनुभव के आधार पर जिससे किसी भी काव्‍यरस-रसिक को इसके स्‍वीकार में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। सहृदयों का यह भी प्रत्‍यक्ष अनुभव है कि काव्‍य-रस सब कुछ होते हुए नित्‍य नहीं होता और आलंकारिकों ने इसको स्‍वीकार किया है। काव्‍यरस की सत्‍ता उसके संवेदन- काल[3] में ही रहती है; उसके पूर्व और उत्‍तरकाल में उसका अभाव रहता है। किन्‍तु नित्‍य-वस्‍तु की सत्ता उसके ज्ञानकाल के अतिरिक्‍त भी रहती है; जो नित्‍य है उसका ज्ञान हो न हो, उसकी सत्‍ता तो रहेगी ही-न खलु नित्‍य वस्‍तुनोऽसंवेदकालेऽसंभव:।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भाव
  2. भाव
  3. ज्ञानकाल

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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