श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-हित की रस-रूपता
रस[1] की स्थिति तीन स्थानों में देखी जाती है- लोक में, काव्य में और भगवद्भक्तों में। लोक का व्यक्तिगत एवं लौकिक कामभाव ही काव्य में कवि-प्रतिभाजन्य- ‘विभावन’ नामक अलौकिक व्यापार का योग पाकर अलौकिक एवं सर्व-रसिक-संवेद्य श्रृंगार रस कहलाता है। लोक में अन्य व्यक्तियों की जिन कामचेष्टओं को देखकर मन में जुगुप्सा का उदय होता है, वही काव्य और नाट्य में सत्कवि द्वारा निबद्ध होकर आनंद विधायक बन जाती है। लोक में रस[2] की निष्पति उसके कारण, कार्य एवं सहकारी भाव काव्य में क्रमश: विभाव, अनुभव एवं संचारी भाव कहलाते हैं। नाट्यरस के लिये भरत का य सूत्र प्रसिद्ध है, -विभावानुभाव-संचारियोगाद्रस निष्पत्ति:’-विभाव अनुभाव और संचारी के योग से रस निष्पत्ति होती है। इसी सूत्र का ग्रह काव्यरस के विवेचन के लिये कर लिया गया है। आलंकारिकों ने काव्यरस को अलौकिक सिद्ध करने में बड़े पराक्रम का प्रदर्शन किया है। उन्होंने उसको स्वप्रकाश, चिन्मय, अखंड एवं ब्रह्मास्वाद के समकक्ष बताया है और यह सब किया है सहृदयों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जिससे किसी भी काव्यरस-रसिक को इसके स्वीकार में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। सहृदयों का यह भी प्रत्यक्ष अनुभव है कि काव्य-रस सब कुछ होते हुए नित्य नहीं होता और आलंकारिकों ने इसको स्वीकार किया है। काव्यरस की सत्ता उसके संवेदन- काल[3] में ही रहती है; उसके पूर्व और उत्तरकाल में उसका अभाव रहता है। किन्तु नित्य-वस्तु की सत्ता उसके ज्ञानकाल के अतिरिक्त भी रहती है; जो नित्य है उसका ज्ञान हो न हो, उसकी सत्ता तो रहेगी ही-न खलु नित्य वस्तुनोऽसंवेदकालेऽसंभव:। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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