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साहित्य
संस्कृत-साहित्य
- या तो वृन्दावन शतककार प्रबोधानंद और श्री चैतन्य चंद्रामृतकार प्रबाधानंद को एक मानकर गौड़ीय संप्रदाय के अनुयायियों ने शतककार के निकुञ्ज गमन के थोडे़ दिन बाद ही उनके कुछ शतकों में श्री चैतन्य स्मरण के श्लोक लगा दिये हैं।
- अथवा जिन प्रबोधानंद ने श्रीहित प्रभु की कृपा प्राप्त की थी वे पहिले श्री चैतन्य के भी कृपापात्र रह चुके थे। भगवत् मुदित जी कृत श्री प्रबोधानंद के चरित्र से ज्ञात होता है कि सरस्वती पाद काशी से वृंदावन आये थे और महापंडित होने के साथ पूरे अविनीत थे। प्रकाशनंद के संबंध में भी श्री कृष्णदास कविराज ने चैतन्य चरितामृत में यही बात लिखी है। श्री चैतन्य की कृपा से ही प्रकाशानंद भक्ति-रस की और उन्मुख हुऐ थे और उन्हीं की प्रेरणा से वे वृंदावन आये थे। वृंदावन में वे एक अन्य महान् विभूति (श्री हित प्रभु) की और आकर्षित हो गये और उनके द्वारा प्रवर्तित रस रीति को ग्रहण करके भजन और काव्य-रचना करने लगे। श्री चैतन्य ने उनको राधाकृष्णागोपासना की और खींचा था,अत: श्री प्रबोधानंद द्वारा उनकी वंदना करना स्वाभाविक है। किंतु, जिन्होंने उनको वृंदावन संबंधी नवीन दृष्टि प्रदान की थी उन श्रीहित हरिवंश की वंदनाएँ भी उनके ग्रंथों में अवश्य रही होंगी।
अत: यह तो निर्विवाद है कि श्री प्रबोधानंद के ग्रंथों में व्यापक परिवर्तन किये गये हैं। श्री सुशीलकुमार दे ने भी लिखा है कि संस्कृत ग्रंथों की अनेक रिपोर्टों और कैटलौगों में श्री प्रबोधानंद के वृंदावन शतकों का उल्लेख हुआ है किंतु इन शतकों के जितने भाग अभी तक प्रकाशित हुए हैं उनमें भिन्न दिखलाई देते हैं।[1]
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