श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
संस्कृत-साहित्य
तब परमानंद के मन भाये, या रस के दाता जु बताये । यह सुनकर श्री प्रबोधानंद वृन्दावन गये किंतु हितप्रभु को उनसे मिलने का अधिक उत्साह नहीं हुआ। परमानंददास जी के समझाने पर वे प्रबोधानंद जी से मिलने को तो तैयार हो गये किंतु यह कहा कि हम गृहस्थ है और यह संन्यासी हैं। अत: यह हम पर अपने मन में ही प्रेम-भाव रखते रहे।’ परमानंद प्रबोध हित कही, सो विनती हित जू मन गही। प्रबोधानंद जी सेवा के द्वारा अपने विश्वास को सुदृढ़ बनाकर नित्य विहार की शिक्षा के अधिकारी बनें और उन्होंने हितप्रभु की स्तुति में एक अष्टक की रचना की।[1] अष्टक को सुनकर हितप्रभु का हृदय करूणार्द्र बन गया और उन्होंने उनको वृंदावन रस रीति का प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया। प्रबोधानंद जी की अभिलाषा पूर्ण हो गई और सुख का सागर उनके नेत्रों के सामने लहराने लगा। दीपक के योग से दीपक प्रकट हो जाता है और दोनों में नि:संदिग्ध रूप से एक ही धर्म-प्रकाश-विद्यमान रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस अष्ठक की गोस्वामी सुखलाल जी कृत संस्कृत टीका प्राप्त है। (अठारहवीं शती)
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