हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 481

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
संस्कृत-साहित्य

तब परमानंद के मन भाये, या रस के दाता जु बताये ।
श्री हरिवंश चरण जब सेवै, तब या रस के जाने भेबैं ।

यह सुनकर श्री प्रबोधानंद वृन्दावन गये किंतु हितप्रभु को उनसे मिलने का अधिक उत्साह नहीं हुआ। परमानंददास जी के समझाने पर वे प्रबोधानंद जी से मिलने को तो तैयार हो गये किंतु यह कहा कि हम गृहस्थ है और यह संन्यासी हैं। अत: यह हम पर अपने मन में ही प्रेम-भाव रखते रहे।’

परमानंद प्रबोध हित कही, सो विनती हित जू मन गही।
ये संभ्‍यासी हम है गेही, मन करि भाव धरौ जु सनेही ।

प्रबोधानंद जी सेवा के द्वारा अपने विश्‍वास को सुदृढ़ बनाकर नित्‍य विहार की शिक्षा के अधिकारी बनें और उन्‍होंने हितप्रभु की स्‍तुति में एक अ‍ष्‍टक की रचना की।[1] अष्‍टक को सुनकर हितप्रभु का हृदय करूणार्द्र बन गया और उन्‍होंने उनको वृंदावन रस रीति का प्रत्‍यक्ष अनुभव करा दिया। प्रबोधानंद जी की अभिलाषा पूर्ण हो गई और सुख का सागर उनके नेत्रों के सामने लहराने लगा। दीपक के योग से दीपक प्रकट हो जाता है और दोनों में नि:संदिग्‍ध रूप से एक ही धर्म-प्रकाश-विद्यमान रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस अष्‍ठक की गोस्‍वामी सुखलाल जी कृत संस्‍कृत टीका प्राप्‍त है। (अठारहवीं शती)

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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