हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 480

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
संस्कृत-साहित्य

गोधन देखि परमसुख पायौ, पाछैं ठोर उदास जनायौ ।
घरी द्वैक रात जब गई, रीति भूमि भयानक भई ।
पाछैं सिंह-सिंहनी धाये, तिनकी गरज सुनत संकाये ।
पाछैं नाग अरु नागिन देखे, डस्यौ न विषधर भयद अलेखे ।
पाछै पवन बुहारी दई, बादर उलह्यौ बरसा भई ।
सीतल मंद सुगंध समीर, आनंद बाढ्यौ सकल सरीर ।
प्रबोधानंद कौ निद्रा आई, सुसप्ति मगन तन दसा भुलाई ।
कुंजबिहारी यह बिचारी, यह ह्याँ को नाहीं अधिकारी ।
अबहीं याकै बहुत कचाई, रसिक संग बिनु भरम न जाई ।
मथुरा कुटी माँझ पहुँचायौ, मानसरोवर रहन न पायौ ।

अपनी कूटी में प्रात:काल जब उनकी आंख खुलीं तब उनके संशय छिन्न हो चुके थे और नित्य बिहार में उनकी सहज प्रतीति जाग्रत हो चुकी थी। वे दोडे़ हुए परमानंददास जी के पास गये ओर उनको मानसरोवर के अपने अनुभव सुनाकर उनसे नित्य विहार-रस दान करने की प्रार्थना की। परमानंददास जी ने इस रस का दाता श्री हिताचार्य को बतलाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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