श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
ब्रजभाषा-बद्य-साहित्य
भाव बढा़यौ रसिक जन निजु अनुमादन काम । इस प्रकार सेवक वाणी की यह टीका सं० 1830 और 1835 के बीच में रची गई होगी। इसका गद्य संस्कृत-शब्द-बहुल और प्रौढ़ है तथा इसमें संस्कृत ग्रन्थों के उद्वरण पद-पद पर दिये हुए है। एक उदाहरण देखिये, ‘जब इच्छा होइ इह रस जीवनि कों दुर्गम है सो दिखाईये। तब कृपा करि अपनौ रस व्रज लीला द्वारा प्रगट करें। आप प्रगटैं तब धाम हु, परिकर हूँ, प्रगटै। तहां अचिन्त्य शक्ति करि अप्रगट-प्रगट दोऊ लीला भई चली जांइ, नित्यता में कछु क्षति नांहि’। इस टीका के लगभग बीस वर्ष बाद गोस्वामी गोवर्धन नाथ जी के शिष्य महात्मा रतन दास जी ने ब्रज भाषा गद्य में सेवक वाणी की दूसरी टीका लिखी। इस टीका में मूल का शब्दार्थ स्पष्ट करने की उतनी चिन्ता नहीं रखी गई हैं जितनी सेवक जी के हार्द को स्पष्ट करने की की गई है। हित के परात्पर ओर सर्व व्यापक स्वरूप का दिग्दर्शन इस टीका में सुन्दर ढंग से कराया गया हैं। इस की भाषा सीधी-सादी किेन्तु भाव व्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है। एक उदाहरण दिया जाता हैं- ‘श्री हित पूर्ण प्रभु हैं। देखो प्रसिद्ध हरि काहु के बस नहीं सो श्री हित जू के बस हैं ओर हरि काहू को करयौ न होइ सो श्री हित कौ करयौ होइ। जा जीव ने हित सों हरि की भक्ति करी ताके बस भये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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