हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 46

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय


उपासना की दृष्टि से हित के विभिन्‍न स्‍वरूपों का प्रागट्य हित-नाम से माना गया है। जिस प्रकार नामी से नाम प्रगट होता है उसी प्रकार नाम से नामी प्रत्‍यक्ष होता है। नामी में नाम प्रगट है और नाम में नामी प्रगट है। नाम के प्रगट रहते नामी को अप्रगट कहा नहीं जा सकता। अत: राधावल्‍लभीय सिद्धान्‍त में, श्‍यामा-श्‍याम के नाम एवं गुणों का प्रगट रहना, स्‍वयं उनका एवं उनकी लीला का प्रगट रहना है। मोहन जी कहते हैं ‘जिस भक्‍त के मुख से जो नाम निकलकर संसार में प्रगट हो गया’ बहुरंगी श्‍याम भी उसी स्‍वरूप में लोक नयनो के गोचर हो गये।

जिहि मुखतें जो नाम निकसि जगत परगट भयौ।
सो बहुरंगी श्‍याम ह्वै सरूप आंखिन लग्‍यौ।।[1]

मोहन जी के पूर्व, सेवक जी ने प्रगट-अप्रगट संबन्‍धी राधावल्‍लभीय सिद्धान्‍त का परिचय यह कर दिया था ‘भक्‍त की परम प्रीति देखकर श्री श्‍याम-श्‍यामा नाम और वाणी के निकट नित्‍य प्रगट रहते हैं।’’

नाम वाणी निकट, श्‍याम श्‍यामा प्रगट
रहत निशिदिन परम प्रीति जानी।

सेवकवाणी के वि‍वृत्तिकार लाडिलीदास जी कहते हैं ‘राधारानी, श्‍याम सुन्‍दर, सहचरी गण, एवं वृन्‍दावन यह चारों रस-सिंधु के सार रूप चार चन्‍द्रमा हैं। यह चारों नाम से प्रगट हुए हैं और नाम इनसे प्रगट हुआ है। नाम और नामी का सम्‍बन्‍ध बीज और वृक्ष जैसा है, बीज से वृक्ष प्रगट होता है और वृक्ष से बीज।

चारौं मिलि रस सिन्‍धु के सार चार वर चंद।
गौर श्‍याम सहचरि विपिन विलसत परमानंद।।
चारौं प्रगटे नाम तें इनतें प्रगट्यौ नाम।
वृक्ष फूल फल बीज तें फल तें बीज सुधाम।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. केलि-कल्‍लोल
  2. सु. बो. 57-58

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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