हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 45

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय


श्री हरि ने वंशी में प्रेम-गान किया था और उस गान को सुनकर ब्रजवस्त्रियों ने चित्‍त में अनंग का-उज्‍जवल प्रेम का वर्धन हुआ था।[1] श्री हरिवंश ने अपनी वाणी में केवल इस उज्‍जवल-प्रेम का गान किया है, अत: उनको वंशी-स्‍वरूप माना जाता है। श्री नंदनंदन की वंशी द्वारा उद्भावित लीला शुद्ध प्रेम की लीला है, उनकी अन्‍य लीलाओं में प्रेम-भिन्‍न वस्‍तुओं की मिलावट पाई जाती है जो अनन्‍य प्रेमियों को रुचिकर नहीं होती। एक ही रस- रीति का आग्रह एवं उस रस-रीति की मिलावट-रहित शुद्धता श्री हिताचार्य की उपसना की विशेषताए मानी जाती हैं।

वंशीनाद की शुद्ध प्रेम-स्‍वरूपता एवं अन्‍य लीलाओं में मिलावट की स्थिति को स्‍पष्‍ट करते हुए सेवक जी कहते हैं ‘‘अन्‍तर्यामी प्रभु को मन में भजने से अनन्‍य–प्रेमियों का भजन नहीं बनता, क्‍योकि प्रेम नित्‍य-प्रगट तत्‍व है और नित्‍य-प्रकट रह कर ही वह अपनी उपलब्धि करता है। प्रेम-भजन की प्राप्ति के लिए, मैंने जब प्रगट-प्रेमस्‍वरूप श्री यशोदानन्‍दन का भजन किया तो उनको अपने सारे शरीर में ब्रह्मांड का दर्शन कराते देखा। साथ ही पुत्र-वत्‍सला माँ यशोदा की सहज वत्‍सल रति को मैंने सहम कर दूर हटते देखा! यह स्थिति उन सभी रतियों की है जो वंशीनाद से प्रेरित नहीं हैं, किन्‍तु जो व्रज-गोपिकायें वेणुनाद से विमोहित हुई वे एक क्षण में शुद्ध प्रेम-स्‍वरूप के निकट पहुँच गईं। अत: वंशीनाद द्वारा उद्भावित नित्‍य-रास क्रीडा में किसी प्रकार की मिलावट की संभावना नहीं है।’’[2]

रासलीला किशोरवस्‍था की लीला है। किशोरावस्‍था में ही प्रेम का नित्‍य–नूतन उत्‍कर्ष होता है और यह भी एक कारण है जिसने हितप्रभु ने अपनी उपसना को नित्‍य–रास पर केन्द्रित किया है। उनके श्री राधामाधव नित्‍य किशोर हैं और नित्‍य किशोर रूप से ही वे नित्‍य प्रगट होते रहते हैं। नंदालय एवं वृषभानु-गृह में इन दोनों के जन्म की बधाई गाने के दूसरे क्षण ही में हितप्रभु इनके नित्‍य-कैशोर के गान में प्रवृत्त हो जाते हैं। जन्‍म-गान के द्वारा उनको केवल यह व्‍यंजित करना है कि उनके नित्‍य-किशोर अजन्‍मा नहीं हैं। वे प्रेम-स्‍वरूप हैं और प्रेम नित्‍य नूतन रूप में प्रगट होता रहता है। अजन्‍मा स्थिति प्रेम की शिथिल स्थिति है, शिथिल प्रेम ही अजन्‍मा-अनूतन-होता है।

पुराणों में राधामाधव की दो प्रकार की लीलायें मानी गईं हैं, एक प्रगट लीला और दूसरी अप्रगट लीला। जो लीला समय पर लोक नयनों के गोचर होती है उसका नाम प्रगट लीला है और जो लीला कभी लोक दृष्टि में नहीं आती, वह अप्रगट लीला है। लीला का इस प्रकार का विभाजन राधा श्‍यामसुन्‍दर को प्रेम-स्‍वरूप भगवान एवं उनकी अंतरंगा शक्ति मान कर ही संभव है। उनको एक हित के दो स्‍वरूप मानने पर उनकी प्रत्‍येक लीला प्रगट होगी, लोक नयनों के गोचर होगी। लौकिक प्रेम भी एक बार उत्‍पन्‍न होने पर लोक नयनों के अगोचर नहीं रह सकता। संसार में प्रेम ही एक ऐसी वस्‍तु है जो छिपाई नहीं जा सकती। प्रेम का इतिहास उसको छिपाने के विफल प्रयासों से भरा पड़ा है। अनेकों प्रकार की मिलावट वाले सांसारिक प्रेम में जब प्रगट होने की यह अद्भुत क्षमता विद्यमान है तो शुद्ध तत्‍सुखमय प्रेम का तो कहना ही क्‍या है!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भा. 10-29-4
  2. से. वा. 8-5

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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