श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमेय
सो हित-संधि सखी जु जब अतिशय व्याकुल होइ। हित के सहज भोक्ता-भोग्य श्री राधा माधव हैं और श्री हिताचार्य ने इन दोनों को नित्य प्रगट माना है। उन्होंने श्री नंदनंदन की बधाई का प्रारम्भ भी उसी ‘आजु’ से किया है जिससे नित्य विहार के अनेक पद प्रारंभ हुए है; ‘आनंद आजु नंद के द्वार।’ राधा-माधव के नित्य विहार की भाँति इनका जन्म भी नित्य-वर्तमान है। नित्य-जन्म का अर्थ नित्य आरंभ होना है और हित का नित्य-नूतनत्व उसके नित्य-नूतन आरंभ को लेकर ही है। यह दोनों नित्य-किशोर रुप में नित्य जन्म ग्रहण करते हैं। हित प्रभु ने राधा-कृष्ण के पौराणिक रूप को उतने ही अंश में ग्रहण किया है, जितना उनकी अनन्य प्रेमोपासना के लिये आवश्यक था। सेवक जी ने श्री हरिवंश के उपासना मार्ग को ग्रहण करने के अपने कारणों बतलाते हुए कहा है ‘‘मैंने सब अवतारों को भजन करके देख लिया है किन्तु उनमें, प्रीति का प्रकाश उतना न होने के कारण, मन का पूर्ण आकर्षण नहीं होता। इसके बाद, मैंने प्रेम-स्वरूप व्रजेन्द्रनंदन के महा ब्रज-वैभव का भजन करके देखा है, किन्तु वहाँ अनेक प्रकार की लीलाओं का चक्र चित्त को जमने नहीं देता। अब तो मेरा मन एक ही रीति की प्रतीति में बँध गया है और यह रीति वह है जिसका गान ही हरि ने अपनी वंशी में करके समस्त प्रमदागण को मोहित किया था। श्री हरि की वंशी के रूप श्री हरिवंश को इसीलिये मैंने दृढ़ता से आश्रय लिया है।’’[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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