हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 44

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
सिद्धान्त-प्रमेय


भोक्‍ता-भोग्‍य की पारस्‍परिक रति का मिलित रूप ही श्रद्वय-हित है, यह हित-संधि है, यही सहिचरि रूप है और यही प्रेरक-प्रेम है। भजनदास जी बतलाते हैं।’ ‘जब भोक्‍ता-भोग्‍य के एक दूसरे में डूब जाने पर हित-संधि रूपा सहचरी[1]अतिशय व्‍याकुल हो जाती है, तभी हित के हृदय में से एक प्राण वाले दो देह प्रगट हो जाते हैं। परात्‍पर-हित रूपी सरोवर में से प्रिया रूपी कमल उत्‍पन्‍न होता है और उस परम रमणीय कमल के आस्‍वाद के लिये प्रियतम रूपी अनुपम भ्रमर हित में से ही प्रगट हो जाता है। रसधाम, सुखद एवं गौर वर्ण प्रिया रूपा हैं, सकाम प्रियतम भोक्‍ता हैं, इसीलिये उनका शरीर श्‍याम है।

सो हित-संधि सखी जु जब अतिशय व्‍याकुल होइ।
तब प्रगटैं हित हीय तैं एक प्रान तन दोइ।।
श्रीमद् हित हृद तैं प्रगट प्‍यारी कंज स्‍वरूप।
प्रगट भये आस्‍वाद हित षटपद लाल अनूप।।
गौर बरन प्‍यारी सुखद भोगरूप रस धाम।
भोगी पीय सकाम है ताही तें तन श्‍याम।।

हित के सहज भोक्‍ता-भोग्‍य श्री राधा माधव हैं और श्री हिताचार्य ने इन दोनों को नित्‍य प्रगट माना है। उन्‍होंने श्री नंदनंदन की बधाई का प्रारम्‍भ भी उसी ‘आजु’ से किया है जिससे नित्‍य विहार के अनेक पद प्रारंभ हुए है; ‘आनंद आजु नंद के द्वार।’ राधा-माधव के नित्‍य विहार की भाँति इनका जन्‍म भी नित्‍य-वर्तमान है। नित्‍य-जन्‍म का अर्थ नित्‍य आरंभ होना है और हित का नित्‍य-नूतनत्‍व उसके नित्‍य-नूतन आरंभ को लेकर ही है। यह दोनों नित्‍य-किशोर रुप में नित्य जन्म ग्रहण करते हैं।

हित प्रभु ने राधा-कृष्‍ण के पौराणिक रूप को उतने ही अंश में ग्रहण किया है, जितना उनकी अनन्‍य प्रेमोपासना के लिये आवश्‍यक था। सेवक जी ने श्री हरिवंश के उपासना मार्ग को ग्रहण करने के अपने कारणों बतलाते हुए कहा है ‘‘मैंने सब अवतारों को भजन करके देख लिया है किन्‍तु उनमें, प्रीति का प्रकाश उतना न होने के कारण, मन का पूर्ण आकर्षण नहीं होता। इसके बाद, मैंने प्रेम-स्‍वरूप व्रजेन्‍द्रनंदन के महा ब्रज-वैभव का भजन करके देखा है, किन्‍तु वहाँ अनेक प्रकार की लीलाओं का चक्र चित्त को जमने नहीं देता। अब तो मेरा मन एक ही रीति की प्रतीति में बँध गया है और यह रीति वह है जिसका गान ही हरि ने अपनी वंशी में करके समस्‍त प्रमदागण को मोहित किया था। श्री हरि की वंशी के रूप श्री हरिवंश को इसीलिये मैंने दृढ़ता से आश्रय लिया है।’’[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रेरक प्रेम
  2. से. वा. 8-11

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः