हारी जानि परी हरि मेरी।
माया-जल बूड़त हौं तकि तट चरन सरन धरि तेरी।
भव सागर, बोहित बपु मेरौ, लोभ-पवन दिसि चारौ।
सुत-धन-धाम-त्रिया-हित औरै लदयौ बहुत बिधि भारौ।
अब भ्रम-भँवर परयौ ब्रज-नायक, निकमन को सब विधि की।
सूर सरद-ससि-बदन दिखाऐं उठै लहर जलनिधि की।।।213।।
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