हरि हौं महा अधम संसारी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग जैतश्री




हरि, हौं महा अधम संसारी।
आन समुझ मैं बरिया ब्‍याही, आसा कुमति कुनारी।
धर्म-सत्त मेरे पितु-माता, ते दोउ दिये बिडारी।
ज्ञान विवेक बिरोधे दोऊ, हते बंधु हितकारी।
बाँध्‍यौ बैर दया भगिनी सौं भागि दुरी सु बिचारी।
सील-सँतोष सखा दोउ मेरे, तिन्‍हें धिगोवति भारी।
कपट-लोभ वाके दोउ भैया, ते घर के अधिकारी।
तृष्‍णा बहिनि, दीनता सहचरि, अधिक प्रीति बिस्‍तारी।
अति निसंक, निरलज्‍ज, अभागिनि, घर घर फिरत न हारी।
मैं तो वृद्ध भयौं वह तरूनी सदा बयस इकसारी।
या‍कैं बस मैं बहु दुख पायौ, सोभा, सबै बिगारी।
करियै कहा लाज भरियै जब अपनी जाँघ उघारो।
अधिक कष्‍ट मौहिं परयौ लोक मैं, जब यह बात उचारो।
सूरदास प्रभु हँसत क हा हौ, मेटौ विपति हमारी।।173।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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