हरि बिछुरत प्रान निलज्ज रहे री -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


हरि बिछुरत प्रान निलज्ज रहे री।
पिय समीप सुख की सुधि आवै, सूल सरीर न जात सहे री।।
निसि बासर ठाढी मग जोवति, ये दुख हम न सुने न चहे री।
गवन करत देखन नहिं पाए नैन नीर भरि बहसि बहे री।।
वै बातै बसि रही हिये मैं, उलटि अवधि के बचन कहेरी।
'सूर' स्याम बिनु परब बिरह बस, मानहुँ रवि ससि राहु गहे री।।3006।।

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