हरि देखन की साध भरी।
जान न दई स्याम सुन्दर पै, सुनि साँई तैं पोच करी।।
कुल-अभिमान हटकि हठि राखी, तैं जिय मैं कछु और धरी।।
जज्ञ-पुरुष तजि करत जज्ञ-बिधि, तातैं कहि कह चाढ़ सरी।।
कहँ लगि समभऊँ सूरज सुनि, जाति मिलन की औधि टरी।।
लेहु सम्हारि देह पिय अपनी, बिनु प्राननि सब सौंज धरी ।।806।।