हरि जू इते दिन कहाँ लगाए।
तबहि अवधि मैं कहत न समुझी, गनत अचानक आए।।
भली करी जु बहुरि इन नैननि, सुदर दरस दिखाए।
जानी कृपा राज काजहु हम, निमिष नही बिसराए।।
विरहिनि विकल विलोकि ‘सूर’ प्रभु, धाइ हृदय करि आए।
कछु इक सारथि सौ कहि पठयो, रथ के तुरंग छुड़ाए।। 4288।।