हरि छबि देखि नैन ललचाने।
इकटक रहे चकार चंद ज्यो, निमिष बिसरि ठहराने।।
मेरौ कह्यौ सुनत नहिं स्रवननि, लोक न लाज लजाने।
गए अकुलाइ धाइ सो देखत, नैकुहुँ नही सकाने।।
जैसै सुभट जात रनसन्मुख, लरत न कबहुँ पराने।
'सूरदास' ऐसी इनि कीन्हौं, स्याम रंग लपटाने।।2248।।