हरि चितए जमलार्जुन के तन -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गौरी



हरि चितए जमलार्जुन के तन।
अबहीं आजु इन्‍हैं उद्धारौं, ये हैं मेरे निज जन।
इनहीं के हित भुजा बँधाई, अब बिलंब नहिं लाऊँ।
परस करौं तन, तरुहिं गिराऊँ, मुनिवर-साप मिटाऊँ।
ये सुकुमार, बहुत दुख पायौ, सुत कुबेर के तारौं।
सूरदास प्रभु कहत मनहिं मन, यह बंधन निरवारौं।।382।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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