हरि चितए जमलार्जुन के तन।
अबहीं आजु इन्हैं उद्धारौं, ये हैं मेरे निज जन।
इनहीं के हित भुजा बँधाई, अब बिलंब नहिं लाऊँ।
परस करौं तन, तरुहिं गिराऊँ, मुनिवर-साप मिटाऊँ।
ये सुकुमार, बहुत दुख पायौ, सुत कुबेर के तारौं।
सूरदास प्रभु कहत मनहिं मन, यह बंधन निरवारौं।।382।।